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अजो॑हवीदश्विना॒ वर्ति॑का वामा॒स्नो यत्सी॒ममु॑ञ्चतं॒ वृक॑स्य। वि ज॒युषा॑ ययथु॒: सान्वद्रे॑र्जा॒तं वि॒ष्वाचो॑ अहतं वि॒षेण॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ajohavīd aśvinā vartikā vām āsno yat sīm amuñcataṁ vṛkasya | vi jayuṣā yayathuḥ sānv adrer jātaṁ viṣvāco ahataṁ viṣeṇa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अजो॑हवीत्। अ॒श्वि॒ना॒। वर्ति॑का। वा॒म्। आ॒स्नः। यत्। सी॒म्। अमु॑ञ्चतम्। वृक॑स्य। वि। ज॒युषा॑। य॒य॒थुः॒। सानु॑। अद्रेः॑। जा॒तम्। वि॒ष्वाचः॑। अ॒ह॒त॒म्। वि॒षेण॑ ॥ १.११७.१६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:16 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) शीघ्र जानेहारे सभासेनाधीशो ! (वर्त्तिका) संग्राम में वर्त्तमान सेना (यत्सीम्) जिसी समय (वाम्) तुम दोनों को (अजोहवीत्) निरन्तर बुलावे तब उसको (वृकस्य) भेड़िया के (आस्नः) मुख से जैसे वैसे शत्रुमण्डल से (अमुञ्चतम्) छुड़ावो अर्थात् उसको जीतो और अपनी सेना को बचाओ, तुम दोनों (जयुषा) जय देनेवाले अपने रथ से (अद्रेः) पर्वत के (सानु) शिखर को (वि, ययथुः) विविध प्रकार जाओ और (विष्वाचः) विविध गतिवाले शत्रुमण्डल के (जातम्) उत्पन्न हुए बल को (विषेण) उसका विपर्य्यय करनेवाले विषरूप अपने बल से (अहतम्) विनाशो नष्ट करो ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुष जैसे बलवान् दयालु शूरवीर बघेले के मुख से छेरी को छुड़ाता है, वैसे डाकुओं के भय से प्रजाजनों को अलग रक्खें। जब शत्रुजन पर्वतों में वर्त्तमान मारे नहीं जा सकते हों तब उनके अन्न-पान आदि को विदूषित कर उनको वश में लावें ॥ १६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अश्विना वर्त्तिका सेना यत् सीं वामजोहवीत् तदा तां वृकस्यास्न इव शत्रुमण्डलादमुञ्चतम्। युवां जयुषा निजरथेनाद्रेः सानु वि ययथुः। विष्वाचो जातं बलं विषेणाहतं च ॥ १६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अजोहवीत्) भृशमाह्वयेत् (अश्विना) सद्यो यातारौ (वर्त्तिका) संग्रामे प्रवर्त्तमाना (वाम्) युवाम् (आस्नः) आस्यात् (यत्) यदा (सीम्) खलु (अमुञ्चतम्) मोचयतम् (वृकस्य) वन्यस्य शुनः (वि) (जयुषा) जयप्रदेन (ययथुः) यातम् (सानु) शिखरम् (अद्रेः) शैलस्य (जातम्) प्रसिद्धमुत्पन्नबलम् (विष्वाचः) विविधगतिमतः शत्रुमण्डलस्य (अहतम्) हन्यातम् (विषेण) विपर्ययकरेण निजबलेन ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुषा यथा बलवान् दयालुः शूरवीरो व्याघ्रमुखादजां निर्मोचयति तथा दस्युभयात् प्रजाः पृथग्रक्षेयुः। यदा शत्रवः पर्वतेषु वर्त्तमाना हन्तुमशक्याः स्युस्तदा तदन्नपानादिकं विदूष्य वशं नयेयुः ॥ १६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा बलवान, दयाळू, शूरवीर लांडग्याच्या मुखातून शेळीला सोडवितो तसे राजपुरुषाने डाकूच्या भयापासून प्रजेला वेगळे ठेवावे. जर शत्रू पर्वतीय प्रदेशात राहत असेल तर अन्न पान इत्यादी दूषित करून त्यांना ताब्यात घ्यावे. ॥ १६ ॥