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दश॒ रात्री॒रशि॑वेना॒ नव॒ द्यूनव॑नद्धं श्नथि॒तम॒प्स्व१॒॑न्तः। विप्रु॑तं रे॒भमु॒दनि॒ प्रवृ॑क्त॒मुन्नि॑न्यथु॒: सोम॑मिव स्रु॒वेण॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

daśa rātrīr aśivenā nava dyūn avanaddhaṁ śnathitam apsv antaḥ | viprutaṁ rebham udani pravṛktam un ninyathuḥ somam iva sruveṇa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दश॑। रात्रीः॑। अशि॑वेन। नव॑। द्यून्। अव॑ऽनद्धम्। श्न॒थि॒तम् अ॒प्ऽसु। अ॒न्तरिति॑। विऽप्रु॑तम्। रे॒भम्। उ॒दनि॑। प्रऽवृ॑क्तम्। उत्। नि॒न्य॒थुः॒। सोम॑म्ऽइव स्रु॒वेण॑ ॥ १.११६.२४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:24 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:24


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नासत्या) असत्य को छोड़कर सत्य का ग्रहण करने, पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! तुम दोनों जैसे (शचीभिः) अच्छी शिक्षा देनेवाली वाणियों से (अशिवेन) अमङ्गल करनेवाले युद्ध के साथ वर्त्तमान शिल्पी जन (अवनद्धम्) नीचे से बन्धी (श्नथितम्) ढीली किई (उदनि) जल में (विप्रुतम्) चलाई (प्रवृक्तम्) और इधर-उधर जाने से रोकी हुई नौका आदि को (दशः) दश (रात्रीः) रात्रि (नव) नौ (द्यून्) दिनों तक (अप्सु) जलों में (अन्तः) भीतर स्थिर कर फिर ऊपर को पहुँचावें, उस ढंग से ओर जैसे (स्रुवेण) घी आदि के उठाने के साधन स्रुवा से (सोममिव) सोमलतादि ओषधियों को उठाते हैं, वैसे (रेभम्) सबकी प्रशंसा करनेहारे अच्छे सज्जन को (उन्निन्यथुः) उन्नति को पहुँचाओ ॥ २४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। पिछले मन्त्र से (नासत्या, शचीभिः) इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। हे मनुष्यो ! जैसे जल के भीतर नौका आदि में स्थित हुई सेना शत्रुओं से मारी नहीं जा सकती, वैसे विद्या और सत्यधर्म के उपदेशों में स्थापित किये हुए जन अविद्याजन्य दुःख से पीड़ा नहीं पाते। जैसे नियत समय पर कारीगर लोग नौकादि यानों को जल में इधर-उधर लेजा के शत्रुओं को जीतते हैं, वैसे विद्यादान से अविद्याओं को आप जीतो। जैसे यज्ञकर्म में होमा हुआ द्रव्य वायु और जल आदि की शुद्धि करनेवाला होता है, वैसे सज्जनों का उपदेश आत्मा की शुद्धि करनेवाला होता है ॥ २४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे नासत्या युवां यथा शचीभिरशिवेनामङ्गलकारिणा युद्धेन सह वर्त्तमानौ शिल्पिनाववनद्धं श्नथितमुदनि विप्रुतं प्रवृक्तं नौकादिकं दश रात्रीर्नव द्यूनप्स्वन्तः संस्थाप्य पुनरूर्ध्वं नयत एवं स्रुवेण सोममिव रेभमुन्निन्यथुः ॥ २४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दशः) (रात्रीः) (अशिवेन) असुखेन। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नव) (द्यून्) दिनानि (अवनद्धम्) अधोबद्धम् (श्नथितम्) शिथिलीकृतं नौकादिकम् (अप्सु) जलेषु (अन्तः) आभ्यन्तरे (विप्रुतम्) विप्रवमाणम् (रेभम्) स्तोतारम्। रेभ इति स्तोतृना०। निघं० ३। १६। (उदनि) उदके। पद्दन्नो० इत्युदकस्योदन्नादेशः। (प्रवृक्तम्) प्रवर्जितम् (उत्) ऊर्ध्वम् (निन्यथुः) नयतम् (सोममिव) यथा सोमवल्ल्यादि हविः (स्रुवेण) उत्थापकेन यज्ञपात्रेण ॥ २४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। पूर्वस्मान् मन्त्रान् नासत्या शचीभिरिति पदद्वयमनुवर्त्तते। हे जना यथा जलाभ्यन्तरे नौकादिषु स्थिताः सेनाः शत्रुभिर्हन्तुं न शक्यन्ते तथा विद्यासत्यधर्मोपदेशेषु स्थापिता जना अविद्याजन्यदुःखेन न पीड्यन्ते। यथा समये शिल्पिनो नौकादिकं जल इतस्ततो नीत्वा शत्रून् विजयन्ते तथा विद्यादानेनाविद्यां यूयं विजयध्वं, यथा यज्ञे हुतं द्रव्यं वायुजलादिशुद्धिकरं जायते तथा सदुपदेश आत्मशुद्धिकरो भवति ॥ २४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. मागच्या मंत्रातील (नासत्या, शचीभिः) या दोन पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. हे माणसांनो! जसे जलात नौका इत्यादीमध्ये स्थित असलेली सेना शत्रूंकडून मारली जाऊ शकत नाही. तसे विद्या व सत्यधर्माच्या उपदेशात असलेले लोक अविद्याजन्य दुःखाने पीडित होत नाहीत. जसे निश्चित वेळेवर कारागीर लोक नावा इत्यादी यानांना पाण्यात इकडे तिकडे घेऊन जातात व शत्रूंना जिंकतात. तसे विद्यादानाने अविद्येला तुम्ही जिंका. जसे यज्ञ कर्मात आहुती दिलेले द्रव्य वायू व जल इत्यादीची शुद्धी करणारे असते तसे सज्जनांचा उपदेश आत्म्याची शुद्धी करणारा असतो. ॥ २४ ॥