वांछित मन्त्र चुनें

अ॒व॒स्य॒ते स्तु॑व॒ते कृ॑ष्णि॒याय॑ ऋजूय॒ते ना॑सत्या॒ शची॑भिः। प॒शुं न न॒ष्टमि॑व॒ दर्श॑नाय विष्णा॒प्वं॑ ददथु॒र्विश्व॑काय ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avasyate stuvate kṛṣṇiyāya ṛjūyate nāsatyā śacībhiḥ | paśuṁ na naṣṭam iva darśanāya viṣṇāpvaṁ dadathur viśvakāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒व॒स्य॒ते। स्तु॒व॒ते। कृ॒ष्णि॒याय॑। ऋ॒जु॒ऽय॒ते। ना॒स॒त्या॒। शची॑भिः। प॒शुम्। न। न॒ष्टम्ऽइ॑व। दर्श॑नाय। वि॒ष्णा॒प्व॑म्। द॒द॒थुः॒। विश्व॑काय ॥ १.११६.२३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:23 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:23


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पढ़ाने और उपदेश करनेवाले क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नासत्या) असत्य के छोड़ने से सत्य के ग्रहण करने, पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! तुम दोनों (शचीभिः) अच्छी शिक्षा देनेवाली वाणियों से (अवस्यते) अपनी रक्षा और (स्तुवते) धर्म को चाहते हुए (ऋजूयते) सीधे स्वभाववाले के समान वर्त्तनेवाले (कृष्णियाय) आकर्षण के योग्य अर्थात् बुद्धि जिसको चाहती उस (विश्वकाय) संसार पर दया करनेवाले (दर्शनाय) धर्म-अधर्म को देखते हुए मनुष्य के लिये (पशुम्, न) जैसे पशु को प्रत्यक्ष दिखावे वैसे और जैसे (नष्टमिव) खुए हुए वस्तु को ढूँढ के बतावें, वैसे (विष्णाप्वम्) विद्या में रमे हुए विद्वानों को जो बोध प्राप्त होता है। उसको (ददथुः) देओ ॥ २३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। शास्त्र के वक्ता, उपदेश करने और विद्या पढ़ानेवाले विद्वान् जन जैसे प्रत्यक्ष गौ आदि पशु को वा छिपे हुए वस्तु को दिखाकर प्रत्यक्ष कराते हैं, वैसे शम, दम आदि गुणों से युक्त बुद्धिमान् श्रोता वा अध्येताओं को पृथिवी से लेके ईश्वरपर्य्यन्त पदार्थों का विज्ञान देनेवाली साङ्गोपाङ्ग विद्याओं को प्रत्यक्ष करावें और इस विषय में कपट और आलस्य आदि निन्दित कर्म कभी न करें ॥ २३ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाध्यापकोपदेशकौ किं कुर्यातामित्याह ।

अन्वय:

हे नासत्योपदेशकाध्यापकौ युवां शचीभिरवस्यते स्तुवत ऋजूयते कृष्णियाय विश्वकाय दर्शनाय पशुं न नष्टमिव विष्णाप्वं ददथुः ॥ २३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अवस्यते) आत्मनोऽवो रक्षणादिकमिच्छते (स्तुवते) धर्मं श्लाघमानाय (कृष्णियाय) कृष्णमाकर्षणमर्हाय। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति घः। (ऋजूयते) ऋजुरिवाचरति तस्मै (नासत्या) असत्यत्यागेन सत्यग्राहिणौ (शचीभिः) सुशिक्षिकाभिर्वाग्भिः (पशुम्) (न) इव (नष्टमिव) यथाऽदर्शनं प्राप्तं वस्तु (दर्शनाय) प्रेक्षमाणाय (विष्णाप्वम्) विष्णान् विद्याव्यापिनो विदुष आप्नोति बोधस्तम्। अत्र विष्लृधातोर्नक् तत अप्लृधातो रू। वा छन्दसीति पूर्वसवर्णप्रतिषेधाद्यण्। (ददथुः) दद्यातम् (विश्वकाय) विश्वस्याऽनुकम्पकाय ॥ २३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारौ। आप्ता उपदेशकाध्यापका जना यथा प्रत्यक्षं गवादिकमदृष्टं वस्तु वा दर्शयित्वा साक्षात्कारयन्ति तथा शमादिगुणान्वितेभ्यो धीमद्भ्यः श्रोतृभ्योऽध्येतृभ्यश्च पृथिवीमारभ्येश्वरपर्यन्तानां पदार्थानां साङ्गोपाङ्गा विद्याः साक्षात्कारयन्तु नात्र कपटालस्यादिकुत्सितं कर्म कदाचित्कुर्य्युः ॥ २३ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. शास्त्राचे वक्ते व उपदेश करणारे व विद्या शिकविणारे विद्वान लोक जसे प्रत्यक्ष गाय इत्यादी पशूला किंवा हरवलेल्या वस्तूंना शोधून प्रत्यक्ष दर्शवितात तसे शम, दम इत्यादी गुणांनी युक्त बुद्धिमान श्रोता व अध्येता यांना पृथ्वीपासून ईश्वरापर्यंत पदार्थांचे विज्ञान देणाऱ्या सांगोपांग विद्यांना प्रत्यक्ष करवावे. या विषयात कपट, आळस इत्यादी निंदित कर्म करू नये. ॥ २३ ॥