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वी॒ळु॒पत्म॑भिराशु॒हेम॑भिर्वा दे॒वानां॑ वा जू॒तिभि॒: शाश॑दाना। तद्रास॑भो नासत्या स॒हस्र॑मा॒जा य॒मस्य॑ प्र॒धने॑ जिगाय ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vīḻupatmabhir āśuhemabhir vā devānāṁ vā jūtibhiḥ śāśadānā | tad rāsabho nāsatyā sahasram ājā yamasya pradhane jigāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वी॒ळु॒पत्म॑ऽभिः। आ॒शु॒हेम॑ऽभिः। वा॒। दे॒वाना॑म्। वा॒। जू॒तिऽभिः॑। शाश॑दाना। तत्। रास॑भः। ना॒स॒त्या॒। स॒हस्र॑म्। आ॒जा। य॒मस्य॑। प्र॒ऽधने॑। जि॒गा॒य॒ ॥ १.११६.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब युद्ध के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शाशदाना) पदार्थों को यथायोग्य छिन्न-छिन्न करनेहारे (नासत्या) सत्यस्वभावी सभापति और सेनापति ! आप जैसे (वीडुपत्मभिः) बल से गिरते और (आशुहेमभिः) शीघ्र पहुँचाते हुए पदार्थों से (वा) अथवा (देवानाम्) विद्वानों की (जूतिभिः) जिनसे अपना चाहा हुआ काम मिले सिद्ध हो उन युद्ध की क्रियाओं से (वा) निश्चय कर अपने कामों को निरन्तर तर्क-वितर्क से सिद्ध करते हों वैसे (तत्) उस आचरण को करता हुआ (रासभः) कहे हुए उपयोग को जो प्राप्त उस पृथिवी आदि पदार्थसमूह के समान पुरुष (प्रधने) उत्तम-उत्तम गुण जिसमें प्राप्त होते उस (आजा) संग्राम में (यमस्य) समीप आये हुए मृत्यु के समान शत्रुओं के (सहस्रम्) असंख्यात वीरों को (जिगाय) जीते ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे अग्नि वा जल वन वा पृथिवी को प्रवेश कर उसको जलाता वा छिन्न-भिन्न करता है, वैसे अत्यन्त वेग करनेहारे बिजुली आदि पदार्थों से किये हुए शस्त्र और अस्त्रों से शत्रु जन जीतने चाहिये ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ युद्धविषयमाह ।

अन्वय:

हे शाशदाना नासत्या सभासेनापती भवन्तौ यथा वीळुपत्मभिराशुहेमभिर्वा देवानां जूतिभिर्वा स्वकार्य्याणि न्यूहतुस्तथा तदाचरन् रासभः प्रधन आजा संग्रामे यमस्य सहस्रं जिगाय शत्रोरसंख्यान् वीरान् जयेत् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वीळुपत्मभिः) बलेन पतनशीलैः (आशुहेमभिः) शीघ्रं गमयद्भिः (वा) (देवानाम्) विदुषाम् (वा) (जूतिभिः) जूयते प्राप्यतेऽर्थो याभिस्ताभिर्युद्धक्रियाभिः (शाशदाना) छेदकौ (तत्) (रासभः) आदिष्टोपयोजनपृथिव्यादिगुणसमूहवत्पुरुषः। रासभावश्विनोरित्यादिष्टोपयोजनना०। निघं० १। १५। (नासत्या) सत्यस्वभावौ (सहस्रम्) असंख्यातम् (आजा) संग्रामे (यमस्य) उपरतस्य मृत्योरिव शत्रुसमूहस्य (प्रधने) प्रकृष्टानि धनानि यस्मात्तस्मिन् (जिगाय) जयेत् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - यथाग्निर्जलं वा वनं पृथिवीं वा प्रविष्टं सद्दहति छिनत्ति वा तथाऽतिवेगकारिभिर्विद्युदादिभिः साधितैः शस्त्रास्त्रैः शत्रवो जेतव्याः ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे अग्नी किंवा जल वन किंवा पृथ्वीवर प्रवेश करून दहन करतात किंवा छिन्नभिन्न करतात तसे अत्यंत वेगाने विद्युत इत्यादी पदार्थांपासून तयार केलेल्या शस्त्र अस्त्रांनी शत्रूंना जिंकले पाहिजे. ॥ २ ॥