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आ॒स्नो वृक॑स्य॒ वर्ति॑काम॒भीके॑ यु॒वं न॑रा नासत्यामुमुक्तम्। उ॒तो क॒विं पु॑रुभुजा यु॒वं ह॒ कृप॑माणमकृणुतं वि॒चक्षे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āsno vṛkasya vartikām abhīke yuvaṁ narā nāsatyāmumuktam | uto kavim purubhujā yuvaṁ ha kṛpamāṇam akṛṇutaṁ vicakṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒स्नः। वृक॑स्य। वर्ति॑काम्। अ॒भीके॑। यु॒वम्। न॒रा॒। ना॒स॒त्या॒। अ॒मु॒मु॒क्त॒म्। उ॒तो इति॑। क॒विम्। पु॒रु॒ऽभु॒जा॒। यु॒वम्। ह॒। कृप॑माणम्। अ॒कृ॒णु॒त॒म्। वि॒ऽचक्षे॑ ॥ १.११६.१४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:116» मन्त्र:14 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुभुजा) बहुत जनों को सुख का भोग कराने (नासत्या) झूठ से अलग रहने (नरा) और सुखों को पहुँचानेहारे सभा सेनापतियो ! (युवम्) तुम दोनों (अभीके) चाहे हुए व्यवहार में (वृकस्य) भेड़िया के (आस्नः) मुख से (वर्त्तिकाम्) चिरौटी के समान सब मनुष्यों को अविद्याजन्य दुःख से (अमुमुक्तम्) छुड़ाओ (उतो) और (ह) भी (युवम्) तुम दोनों सब विद्याओं को (विचक्षे) विख्यात करने को (कृपमाणम्) कृपा करनेवाले (कविम्) विद्या के पारंगत पुरुष को (अकृणुतम्) सिद्ध करो ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सुखरूप सबके चाहे हुए विद्या ग्रहण करने के व्यवहार में सब मनुष्यों को प्रवृत्त करके जिसका दुःख फल है उस अन्यायरूप काम से निवृत्त करके उन सब प्राणियों पर कृपा कर सुख देवें ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।

अन्वय:

हे पुरुभुजा नासत्या नरा अश्विनौ युवं युवामभीके वृकस्यास्न आस्याद्वर्त्तिकामिव सर्वान्मनुष्यानविद्याजन्यदुःखादमुमुक्तं मोचयतम्। उतो ह खल्वपि युवं सर्वा विद्या विचक्षे कृपमाणं कविमकृणुतम् ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आस्नः) आस्यान्मुखात् (वृकस्य) (वर्तिकाम्) चटकापक्षिणीमिव (अभीके) कामिते व्यवहारे (युवम्) युवाम् (नरा) सुखप्रापकौ (नासत्या) असत्यविरहौ (अमुमुक्तम्) मोचयतम् (उतो) अपि (कविम्) विद्यापारदर्शिनं मेधाविनम् (पुरुभुजा) पुरून् बहून् जनान् सुखानि भोजयितारौ (युवम्) युवाम् (ह) खलु (कृपमाणम्) कृपां कर्त्तारम्। अत्र विकरणव्यत्ययेन शः। (अकृणुतम्) कुरुतम् (विचक्षे) विख्यापयितुम्। अत्र तुमर्थेसे० सेन् ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सुखरूपे सर्वस्याभीष्टे विद्याग्रहणव्यवहाराख्ये सर्वान् मनुष्यान् प्रवर्त्य दुःखफलादन्याय्यात् कर्मणो निवर्त्य सर्वेषां प्राणिनामुपरि कृपां विधाय सुखयितव्यम् ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सुखरूपी, सर्वांना अभीष्ट असणाऱ्या विद्याग्रहण व्यवहारात सर्व माणसांना प्रवृत्त करून, ज्याचे दुःख हे फळ आहे अशा अन्यायरूपी कामातून निवृत्त करून सर्व प्राण्यांवर कृपा करून सुख द्यावे. ॥ १४ ॥