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अ॒द्या दे॑वा॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ निरंह॑सः पिपृ॒ता निर॑व॒द्यात्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adyā devā uditā sūryasya nir aṁhasaḥ pipṛtā nir avadyāt | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒द्य। दे॒वाः॒। उत्ऽइ॑ता॑। सूर्य॑स्य। निः। अंह॑सः। पि॒पृ॒त। निः। अ॒व॒द्यात्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.११५.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:115» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवाः) विद्वानो ! (सूर्य्यस्य) समस्त जगत् को उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर की उपासना से (उदिता) उदय अर्थात् सब प्रकार से उत्कर्ष की प्राप्ति में प्रकाशमान हुए तुम लोग (निः) निरन्तर (अवद्यात्) निन्दित (अंहसः) पाप आदि कर्म से (निष्पिपृत) निर्गत होओ अर्थात् अपने आत्मा, मन और शरीर आदि को दूर रक्खो तथा जिसको (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) प्रकाश आदि पदार्थ सिद्ध करते हैं (तत्) वह वस्तु वा कर्म (नः) हम लोगों को सुख देता है, उसको तुम लोग (अद्य) आज (मामहन्ताम्) बार-बार प्रशंसित करो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि पाप से दूर रह धर्म का आचरण और जगदीश्वर की उपासना कर शान्ति के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की परिपूर्ण सिद्धि करें ॥ ६ ॥इस सूक्त में सूर्य शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक के अर्थ का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥ यह १ मण्डल में १६ वाँ अनुवाक ११५ वाँ सूक्त और ७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥ इस सूक्त में सूर्य शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक के अर्थ का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥ यह १ मण्डल में १६ वाँ अनुवाक ११५ वाँ सूक्त और ७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे देवाः सूर्यस्योपासनेनोदिता प्रकाशमानाः सन्तो यूयं निरवद्यादंहसो निष्पिपृत यन् मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः प्रसाध्नुवन्ति तन्नोऽस्मान् सुखयति तदद्य भवन्तो मामहन्ताम् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्य) इदानीम्। अत्र दीर्घः। (देवाः) विद्वांसः (उदिता) उत्कृष्टप्राप्तौ (सूर्य्यस्य) जगदीश्वरस्य (निः) नितराम् (अंहसः) पापात् (पिपृत) अत्र दीर्घः। (निः) (अवद्यात्) गर्ह्यात् (तत्, नः०) पूर्ववत् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः पापाद्दूरे स्थित्वा धर्ममाचर्य जगदीश्वरमुपास्य शान्त्या धर्मार्थकाममोक्षाणां पूर्त्तिः संपाद्या ॥ ६ ॥अत्र सूर्यशब्देनेश्वरसवितृलोकार्थवर्णनादस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ ।इति प्रथमण्डले षोडशोऽनुवाकः पञ्चदशोत्तरशततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी पापापासून दूर राहून धर्माचे आचरण व जगदीश्वराची उपासना करून शांतीने धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाची परिपूर्ण सिद्धी करावी. ॥ ६ ॥