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तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार। य॒देदयु॑क्त ह॒रित॑: स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tat sūryasya devatvaṁ tan mahitvam madhyā kartor vitataṁ saṁ jabhāra | yaded ayukta haritaḥ sadhasthād ād rātrī vāsas tanute simasmai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। सूर्य॑स्य। दे॒व॒ऽत्वम्। तत्। म॒हि॒ऽत्वम्। म॒ध्या। कर्तोः॑। विऽत॑तम्। सम्। ज॒भा॒र॒। य॒दा। इत्। अयु॑क्त। ह॒रितः॑। स॒धऽस्था॑त्। आत्। रात्री॑। वासः॑। त॒नु॒ते॒। सि॒मस्मै॑ ॥ १.११५.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:115» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी सूर्य का काम अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यदा) जब (तत्) वह पहिले मन्त्र में कहा हुआ (सूर्य्यस्य) सूर्यमण्डल के (मध्या) बीच में (विततम्) व्याप्त ब्रह्म इस सूर्य्य के (देवत्वम्) प्रकाश (महित्वम्) बड़प्पन (कर्त्तोः) और काम का (संजभार) संहार करता अर्थात् प्रलय समय सूर्य्य के समस्त व्यवहार को हर लेता (आत्) और फिर जब सृष्टि को उत्पन्न करता है तब सूर्य्य को (अयुक्त) युक्त अर्थात् उत्पन्न करता और नियत कक्षा में स्थापन करता है। सूर्य्य (सधस्थात्) एक स्थान से (हरितः) दिशाओं को अपनी किरणों से व्याप्त होकर (सिमस्मै) समस्त लोक के लिये (वासः) अपने निवास का (तनुते) विस्तार करता तथा जिस ब्रह्म के तत्त्व से (रात्री) रात्री होती है (तत्, इत्) उसी ब्रह्म की उपासना तुम लोग करो तथा उसी को जगत् का कर्त्ता जानो ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - हे सज्जनो ! यद्यपि सूर्य्य आकर्षण से पृथिवी आदि पदार्थों का धारण करता है, पृथिवी आदि लोकों से बड़ा भी वर्त्तमान है। संसार का प्रकाश कर व्यवहार भी कराता है तो भी यह सूर्य्य परमेश्वर के उत्पादन, धारण और आकर्षण आदि गुणों के विना उत्पन्न होने, स्थिर रहने और पदार्थों का आकर्षण करने को समर्थ नहीं हो सकता। न इस ईश्वर के विना ऐसे-ऐसे लोक-लोकान्तरों की रचना, धारणा और इनके प्रलय करने को कोई समर्थ होता है ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तत्कृत्यमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यदा तत् सूर्यस्य मध्या विततं सत् ब्रह्मैतस्य देवत्वं महित्वं कर्त्तोः सञ्जभार प्रलयसमये संहरति आत् यदा सृष्टिं करोति तदा सूर्यमयुक्तोत्पाद्य कक्षायां स्थापयति, सूर्यः सधस्थाद्धरितः किरणैर्व्याप्य सिमस्मै वासस्तनुते, यस्य तत्वाद्रात्री जायते तदिदेव ब्रह्म यूयमुपाध्वं तेदव जगत्कर्त्तृ विजानीत ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) यत् प्रथममन्त्रोक्तं ब्रह्म (सूर्यस्य) सूर्यमण्डलस्य (देवत्वम्) देवस्य प्रकाशमयस्य भावः (तत्) (महित्वम्) (मध्या) मध्ये। अत्र सप्तम्येकवचनस्याकारः। (कर्त्तोः) कर्म (विततम्) व्याप्तम् (सम्) (जभार) हरति (यदा) (इत्) (अयुक्त) युनक्ति (हरितः) दिशः (सधस्थात्) समानस्थानात् (आत्) अनन्तरम् (रात्री) (वासः) वसनम् (तनुते) (सिमस्मै) सर्वस्मै लोकाय ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - हे सज्जना यदपि सूर्य आकर्षणेन पृथिव्यादिपदार्थान् धरति पृथिव्यादिभ्यो महानपि वर्त्तते विश्वं प्रकाश्य व्यवहारयति च तदप्ययं परमेश्वरस्योत्पादनधारणाकर्षणैर्विनोत्पत्तुं स्थातुमाकर्षितुं च न शक्नोति नैतमीश्वरमन्तरेणेदृशानां लोकानां रचनं धारणं प्रलयं च कर्त्तुं कश्चित् समर्थो भवति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! सूर्य जरी आपल्या आकर्षणाने पृथ्वी वगैरेंना धारण करतो. पृथ्वीपेक्षा मोठा असून जगात प्रकाश फैलावून व्यवहार करवितो तरीही सूर्य परमेश्वराचे उत्पादन, धारण व आकर्षण या गुणांशिवाय उत्पन्न होणे, स्थिर राहणे व पदार्थांचे आकर्षण करणे इत्यादी करण्यास समर्थ झाला नसता. ईश्वराशिवाय अशा लोकलोकांतरांची रचना, धारणा व प्रलय करण्यास कोणी समर्थ बनू शकत नाही. ॥ ४ ॥