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सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात्। यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sūryo devīm uṣasaṁ rocamānām maryo na yoṣām abhy eti paścāt | yatrā naro devayanto yugāni vitanvate prati bhadrāya bhadram ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सूर्यः॑। दे॒वीम्। उ॒षसम्। रोच॑मानाम्। मर्यः॑। न। योषा॑म्। अ॒भि। ए॒ति॒। प॒श्चात्। यत्र॑। नरः॑। दे॒व॒ऽयन्तः॑। यु॒गानि॑। वि॒ऽत॒न्व॒ते। प्रति॑। भ॒द्राय॑। भ॒द्रम् ॥ १.११५.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:115» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस ईश्वर ने उत्पन्न करके (कक्षा) नियम में स्थापन किया यह (सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल (रोचमानाम्) रुचि कराने (देवीम्) और सब पदार्थों को प्रकाशित करनेहारी (उषसम्) प्रातःकाल की वेला को उसके होने के (पश्चात्) पीछे जैसे (मर्य्यः) पति (योषाम्) अपनी स्त्री को प्राप्त हो (न) वैसे (अभ्येति) सब ओर से दौड़ा जाता है, (यत्र) जिस विद्यमान सूर्य्य में (देवयन्तः) मनोहर चाल-चलन से सुन्दर गणितविद्या को जानते-जनाते हुए (नरः) ज्योतिष विद्या के भावों को दूसरों की समझ में पहुँचानेहारे ज्योतिषी जन (युगानि) पाँच-पाँच संवत्सरों की गणना से ज्योतिष में युग वा सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग को जान (भद्राय) उत्तम सुख के लिये (भद्रम्) उस उत्तम सुख के (प्रति, वितन्वते) प्रति विस्तार करते हैं, उसी परमेश्वर को सबका उत्पन्न करनेहारा तुम लोग जानो ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! तुम लोगों से जिस ईश्वर ने सूर्य्य को बनाकर प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थापन किया, उसके आश्रय से गणित आदि समस्त व्यवहार सिद्ध होते हैं, वह ईश्वर क्यों न सेवन किया जाय ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरकृत्यमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या येनेश्वरेणोत्पाद्य स्थापितोऽयं सूर्यो रोचमानां देवीमुषसं पश्चान् मर्यो योषां नेवाभ्येति यत्र यस्मिन् विद्यमाने मार्त्तण्डे देवयन्तो नरो युगानि विज्ञाय भद्राय भद्रं प्रति वितन्वते। तमेव सकलस्रष्टारं यूयं विजानीत ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्य्यः) सविता (देवीम्) द्योतिकाम् (उषसम्) सन्धिवेलाम् (रोचमानाम्) रुचिकारिकाम् (मर्यः) पतिर्मनुष्यः (न) इव (योषाम्) स्वभार्याम् (अभि) अभितः (एति) (पश्चात्) (यत्रा) यस्मिन्। अत्र दीर्घः। (नरः) नयनकर्त्तारो गणकाः (देवयन्तः) कामयमाना गणितविद्यां जानन्तो ज्ञापयन्तः (युगानि) वर्षाणि कृतत्रेताद्वापरकलिसंज्ञानि वा (वितन्वते) विस्तारयन्ति (प्रति) (भद्राय) कल्याणाय (भद्रम्) कल्याणम् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो युष्माभिर्येनेश्वरेण सूर्य्यं निर्माय प्रतिब्रह्माण्डस्य मध्ये स्थापितस्तमाश्रित्य गणितादयः सर्वे व्यवहाराः सिध्यन्ति स कुतो न सेव्येत ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! ज्या ईश्वराने सूर्य उत्पन्न करून प्रत्येक ब्रह्मांड निर्माण केलेले आहे, त्याच्या आश्रयाने गणित इत्यादी संपूर्ण व्यवहार सिद्ध होतात. त्या ईश्वराचे सेवन का करू नये? ॥ २ ॥