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अवो॑चाम॒ नमो॑ अस्मा अव॒स्यव॑: शृ॒णोतु॑ नो॒ हवं॑ रु॒द्रो म॒रुत्वा॑न्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avocāma namo asmā avasyavaḥ śṛṇotu no havaṁ rudro marutvān | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अवो॑चाम। नमः॑। अ॒स्मै॒। अ॒व॒स्यवः॑। शृ॒णोतु॑। नः॒। हव॑म्। रु॒द्रः। म॒रुत्वा॑न्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.११४.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:114» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:6» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अध्यापक और उपदेशकों के व्यवहारों को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (अवस्यवः) अपनी रक्षा चाहते हुए हम लोग (अस्मै) इस मान करने योग्य सभाध्यक्ष के लिये (नमः) “नमस्ते” ऐसे वाक्य को (अवोचाम) कहें और वह (मरुत्वान्) बलवान् (रुद्रः) विद्या पढ़ा हुआ सभापति (तत्) उस (नः) हमारे (हवम्) बुलानेरूप प्रशंसावाक्य को (शृणोतु) सुने। हे मनुष्यो ! जो (नः) हमारे “नमस्ते” शब्द को (मित्रः) प्राण (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथ्वी (उत) और (द्यौः) प्रकाश बढ़ाते हैं अर्थात् उक्त पदार्थों को जाननेहारे सभापति को बार-बार “नमस्ते” शब्द कहा जाता है, उसको आप (मामहन्ताम्) बार-बार प्रशंसायुक्त करें ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - प्रजापुरुषों को राजा लोगों के प्रिय आचरण नित्य करने चाहिये और राजा लोगों को प्रजाजनों के कहे वाक्य सुनने योग्य हैं। ऐसे सब राजा-प्रजा मिलकर न्याय की उन्नति और अन्याय को दूर करें ॥ ११ ॥इस सूक्त में ब्रह्मचारी, विद्वान्, सभाध्यक्ष और सभासद् आदि गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता जानने योग्य है ॥यह ११४ एकसौ चौदहवाँ सूक्त और ६ छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥ ११ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरध्यापकोपदेशकव्यवहारमाह ।

अन्वय:

अवस्यवो वयमस्मै सभाध्यक्षाय नमोऽवोचाम स मरुत्वान् रुद्रो नस्तन्नोऽस्माकं हवं च शृणोतु। हे मनुष्या यन्नो नमो मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्वर्धयन्ति तद्भवन्तो मामहन्ताम् ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अवोचाम) वदेम (नमः) नमस्त इति वाक्यम् (अस्मै) माननीयाय सभाध्यक्षाय (अवस्यवः) आत्मनोऽवो रक्षणादिकमिच्छवः (शृणोतु) (नः) अस्माकम् (हवम्) आह्वानरूपं प्रशंसावाक्यम् (रुद्रः) अधीतविद्यः (मरुत्वान्) बलवान् (तत्) (नः०) इति पूर्ववत् ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - प्रजास्थैः पुरुषै राज्ञां प्रियाचरणानि नित्यं कर्त्तव्यानि राजभिश्च प्रजाजनानां वचांसि श्रोतव्यानि। एवं मिलित्वा न्यायमुन्नीयान्यायं निराकुर्य्युः ॥ ११ ॥अत्र ब्रह्मचारिविद्वत्सभाध्यक्षसभासदादिगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥इति चतुर्दशोत्तरं शततमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने राजाला प्रिय वाटेल असे आचरण नित्य करावे व राजाने प्रजेचे ऐकावे. अशा प्रकारे राजा व प्रजा यांनी मिळून न्याय वृद्धिंगत करून अन्याय दूर करावा. ॥ ११ ॥