वांछित मन्त्र चुनें

भास्व॑ती ने॒त्री सू॒नृता॑ना॒मचे॑ति चि॒त्रा वि दुरो॑ न आवः। प्रार्प्या॒ जग॒द्व्यु॑ नो रा॒यो अ॑ख्यदु॒षा अ॑जीग॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhāsvatī netrī sūnṛtānām aceti citrā vi duro na āvaḥ | prārpyā jagad vy u no rāyo akhyad uṣā ajīgar bhuvanāni viśvā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भास्व॑ती। ने॒त्री। सू॒नृता॑नाम्। अचे॑ति। चि॒त्रा। वि। दुरः॑। नः॒। आ॒व॒रित्या॑वः। प्र॒ऽर्प्य॑। जग॑त्। वि। ऊँ॒ इति॑। नः॒। रा॒यः। अ॒ख्य॒त्। उ॒षाः। अ॒जी॒गः॒। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ १.११३.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:113» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उषा का विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्यो ! तुम लोगों को जो (भास्वती) अतीवोत्तम प्रकाशवाले (सूनृतानाम्) वाणी और जागृत के व्यवहारों को (नेत्री) प्राप्त करने और (चित्रा) अद्भुत गुण, कर्म, स्वभाववाली (उषाः) प्रभात वेला (नः) हमारे लिये (दुरः) द्वारों (वि, आवः) को प्रकट करती हुई सी वा जो (नः) हमारे लिये (जगत्) संसार को (प्रार्प्य) अच्छे प्रकार अर्पण करके (रायः) धनों को (वि, अख्यत्) प्रसिद्ध करती है (उ) और (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (अजीगः) अपनी व्याप्ति से निगलती सी है, वह (अचेति) अवश्य जाननी है ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो उषा सब जगत् को प्रकाशित करके, सब प्राणियों को जगा, सब संसार में व्याप्त होकर, सब पदार्थों को वृष्टि द्वारा समर्थ करके, पुरुषार्थ में प्रवृत्त करा, धनादि की प्राप्ति करा, माता के समान सब प्राणियों को पालती है, इससे आलस्य में उत्तम प्रातःसमय की वेला व्यर्थ न गमाना चाहिये ॥ ४ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरुषो विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वांसो मनुष्या युष्माभिर्या भास्वती सूनृतानां नेत्री चित्रोषा नो दुरो व्यावो या नोऽस्मभ्यं जगत् प्रार्प्य रायो व्यख्यदु इति वितर्के विश्वा भुवनान्यजीगः साचेति अवश्यं विज्ञायताम् ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भास्वती) प्रशस्ता भाः कान्तिर्विद्यते यस्याः सा (नेत्री) प्रापिका (सूनृतानाम्) वाग्जागरितादिव्यवहाराणाम् (अचेति) सम्यग् विज्ञायताम् (चित्रा) विविधव्यवहारसिद्धिप्रदा (वि) (दुरः) द्वाराणि। अत्र पृषोदरादित्वात् संप्रसारणेनेष्टरूपसिद्धिः। (नः) अस्माकम् (आवः) विवृणोतीव (प्रार्प्य) अर्पयित्वा (जगत्) संसारम् (वि) (उ) (नः) अस्मभ्यम् (रायः) धनानि (अख्यत्) प्रख्याति (उषाः) सुप्रभातः (अजीगः) स्वव्याप्त्या निगलतीव (भुवनानि) लोकान् (विश्वा) सर्वान्। अत्र शेर्लोपः ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। योषा सर्वं जगत् प्रकाश्य सर्वान् प्राणिनो जागरयित्वा सर्वं विश्वमभिव्याप्य सर्वान् पदार्थान् वृष्टिद्वारा समर्थयित्वा पुरुषार्थे प्रवर्त्य धनादीनि प्रापय्य मातेव सर्वान् प्राणिनः पात्यत आलस्ये व्यर्था सा वेला नैव नेया ॥ ४ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी उषा सर्व जगाला प्रकाशित करते. सर्व प्राण्यांना जागृत करून सर्व जगात व्याप्त असते. सर्व पदार्थांना वृष्टीद्वारे समर्थ करते व पुरुषार्थात प्रवृत्त करून धनाची प्राप्ती करविते व मातेप्रमाणे सर्व प्राण्यांचे पालन करते. त्यासाठी आळशी राहून प्रातःकाळची वेळ व्यर्थ गमावता कामा नये ॥ ४ ॥