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या गोम॑तीरु॒षस॒: सर्व॑वीरा व्यु॒च्छन्ति॑ दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य। वा॒योरि॑व सू॒नृता॑नामुद॒र्के ता अ॑श्व॒दा अ॑श्नवत्सोम॒सुत्वा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yā gomatīr uṣasaḥ sarvavīrā vyucchanti dāśuṣe martyāya | vāyor iva sūnṛtānām udarke tā aśvadā aśnavat somasutvā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याः। गोऽम॑तीः। उ॒षसः॑। सर्व॑ऽवीराः। वि॒ऽउ॒च्छन्ति॑। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य। वा॒योःऽइ॑व। सू॒नृता॑नाम्। उ॒त्ऽअ॒र्के। ताः। अ॒श्व॒ऽदाः। अ॒श्न॒व॒त्। सो॒म॒ऽसुत्वा॑ ॥ १.११३.१८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:113» मन्त्र:18 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उषःकाल के प्रसङ्ग से स्त्री-पुरुष के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग (याः) जो (सूनृतानाम्) श्रेष्ठ वाणी और अन्नादि को (उदर्के) उत्कृष्टता से प्राप्ति में (वायोरिव) जैसे वायु से (गोमतीः) बहुत गौ वा किरणोंवाली (उषसः) प्रभात वेला वर्त्तमान हैं, वैसे विदुषी स्त्री (दाशुषे) सुख देनेवाले (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (व्युच्छन्ति) दुःख दूर करती और (अश्वदाः) अश्व आदि पशुओं को देनेवाली (सर्ववीराः) जिनके होते समस्त वीरजन होते हैं (ताः) उन विदुषी स्त्रियों को (सोमसुत्वा) ऐश्वर्य की सिद्धि करनेहारा जन (अश्नवत्) प्राप्त होता है, वैसे ही इनको प्राप्त होओ ॥ १८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। ब्रह्मचारी लोगों को योग्य है कि समावर्त्तन के पश्चात् अपने सदृश विद्या, उत्तम शीलता, रूप और सुन्दरता से सम्पन्न हृदय को प्रिय, प्रभात वेला के समान, प्रशंसित, ब्रह्मचारिणी कन्याओं से विवाह करके गृहाश्रम में पूर्ण सुख करें ॥ १८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरुषःप्रसङ्गेन स्त्रीपुरुषविषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं या सूनृतानामुदर्के वायोरिव वर्त्तमाना गोमतीरुषसो विदुष्यः स्त्रियो दाशुषे मर्त्याय व्युच्छन्ति। अश्वदाः सर्ववीराः प्राप्नुत यथा सोमसुत्वाश्नवत् तथैता प्राप्नुत ॥ १८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (या) (गोमतीः) बह्व्यो गावो धेनवः किरणा वा विद्यन्ते यासां ताः (उषसः) (सर्ववीराः) सर्वे वीराः भवन्ति यासु सतीषु ताः (व्युच्छन्ति) दुःखं विवासयन्ति (दाशुषे) सुखं दात्रे (मर्त्याय) (वायोरिव) यथा पवनात् (सूनृतानाम्) वाचामन्नादिपदार्थानाम् (उदर्के) उत्कृष्टतयाप्तौ (ताः) विदुष्यः (अश्वदाः) या अश्वादीन् पशून् प्रददति (अश्नवत्) अश्नुते (सोमसुत्वा) यः सोममैश्वर्यं सवति सः ॥ १८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ब्रह्मचारिणां योग्यमस्ति समावर्त्तनानन्तरं स्वसदृशीर्विद्यासुशीलतारूपलावण्यसंपन्ना हृद्याः प्रभातवेला इव प्रशंसायुक्ता ब्रह्मचारिणीरुद्वाह्य गृहाश्रमे सुखमलंकुर्य्युः ॥ १८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ब्रह्मचाऱ्यांनी समावर्तनानंतर आपल्यासारख्या विद्या, उत्तम शील, रूप व सौंदर्यसंपन्न, हृदयाला प्रिय, प्रभातवेळेप्रमाणे प्रशंसित, ब्रह्मचारिणी कन्यांबरोबर विवाह करून गृहस्थाश्रम पूर्ण सुखी करावा. ॥ १८ ॥