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ऋ॒भुर्भरा॑य॒ सं शि॑शातु सा॒तिं स॑मर्य॒जिद्वाजो॑ अ॒स्माँ अ॑विष्टु। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛbhur bharāya saṁ śiśātu sātiṁ samaryajid vājo asmām̐ aviṣṭu | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒भुः। भरा॑य। सम्। शि॒शा॒तु॒। सा॒तिम्। स॒म॒र्य॒ऽजित्। वाजः॑। अ॒स्मान्। अ॒वि॒ष्टु॒। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.१११.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:111» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:32» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह मेधावी श्रेष्ठ विद्वान् क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मेधावी (समर्य्यजित्) संग्रामों के जीतनेवाले (ऋभुः) प्रशंसित विद्वान् ! (वाजः) वेगादि गुणयुक्त आप (भराय) संग्राम के अर्थ आये शत्रुओं का (संशिशातु) अच्छी प्रकार नाश कीजिये (अस्मान्) हम लोगों की (अविष्टु) रक्षा आदि कीजिये जैसे (नः) हम लोगों के लिये जो (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणवाला (अदितिः) विद्वान् (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्य का प्रकाश (मामहन्ताम्) सिद्ध करें उन्नति देवें वैसे ही आप (तत्) उस (सातिम्) पदार्थों के अलग-अलग करने को हम लोगों के लिये सिद्ध कीजिये ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों का यही मुख्य कार्य्य है कि जो जिज्ञासु अर्थात् ज्ञान चाहनेवाले, विद्या के न पढ़े हुए विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा और विद्यादान से बढ़ावें, जैसे मित्र आदि सज्जन वा प्राण आदि पवन सबकी वृद्धि करके उनको सुखी करते हैं वैसे ही विद्वान् जन भी अपना वर्ताव रक्खें ॥ ५ ॥इस सूक्त में बुद्धिमानों के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥यह ३२ बत्तीसवाँ वर्ग और १११ एकसौ ग्यारहवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स मेधावी नरः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मेधाविन् समर्यजिदृभुर्वाजो भवान् भराय शत्रून् संशिशातु। अस्मानविष्टु तथा नोऽस्मदर्थं यन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्तां तथैव भवाँस्तत् तां सातिं नोऽस्मदर्थं निष्पादयतु ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋभुः) प्रशस्तो विद्वान् (भराय) संग्रामाय। भर इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (सम्) (शिशातु) क्षयतु। अत्र शो तनूकरण इत्यस्मात् श्यनः स्थाने बहुलं छन्दसीति श्लुः। ततः श्लाविति द्वित्वम्। (सातिम्) संविभागम् (समर्यजित्) यः समर्यान् संग्रामान् जयति सः। समर्य इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (वाजः) वेगादिगुणयुक्तः (अस्मान्) (अविष्टु) रक्षणादिकं करोतु। अत्रावधातोर्लोटि सिबुत्सर्ग इति सिब्विकरणः। (तन्नः०) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - विदुषामिदमेव मुख्यं कर्मास्ति यद् जिज्ञासूनविदुषो विद्यार्थिनः सुशिक्षाविद्यादानाभ्यां वर्द्धयेयुः। यथा मित्रादयः प्राणादयो वा सर्वान् वर्द्धयित्वा सुखयन्ति तथैव विद्वांसोऽपि वर्त्तेरन् ॥ ५ ॥।अत्र मेधाविनां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति द्वात्रिंशो वर्ग एतत्सूक्तं (१११) च समाप्तम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांचे हेच मुख्य कार्य आहे की जे जिज्ञासू अर्थात ज्ञानी लोक आहेत त्यांनी अज्ञानी विद्यार्थ्यांना चांगले शिक्षण देऊन विद्यादानाने वाढवावे. जसे मित्र किंवा प्राणवायू सर्वांची वृद्धी करून त्यांना सुखी करतात तसेच विद्वान लोकांनीही आपले वर्तन ठेवावे. ॥ ५ ॥