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आ म॑नी॒षाम॒न्तरि॑क्षस्य॒ नृभ्य॑: स्रु॒चेव॑ घृ॒तं जु॑हवाम वि॒द्मना॑। त॒र॒णि॒त्वा ये पि॒तुर॑स्य सश्चि॒र ऋ॒भवो॒ वाज॑मरुहन्दि॒वो रज॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā manīṣām antarikṣasya nṛbhyaḥ sruceva ghṛtaṁ juhavāma vidmanā | taraṇitvā ye pitur asya saścira ṛbhavo vājam aruhan divo rajaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। म॒नी॒षाम्। अ॒न्तरि॑क्षस्य। नृऽभ्यः॑। स्रु॒चाऽइ॑व। घृ॒तम्। जु॒ह॒वा॒म॒। वि॒द्मना॑। त॒र॒णि॒ऽत्वा। ये। पि॒तुः। अ॒स्य॒। स॒श्चि॒रे। ऋ॒भवः॑। वाज॑म्। अ॒रु॒ह॒न्। दि॒वः। रजः॑ ॥ १.११०.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:110» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:31» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य्य की किरणें कैसी हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (ऋभवः) सूर्य्य की किरणें (तरणित्वा) शीघ्रता से (वाजम्) पृथिवी आदि अन्न पर (अरुहन्) चढ़तीं और (दिवः) प्रकाशयुक्त आकाश के बीच (रजः) लोकसमूह को (सश्चिरे) प्राप्त होती हैं। और (अस्य) इस (अन्तरिक्षस्य) आकाश के बीच वर्त्तमान हुई (नृभ्यः) मनुष्यों के लिये (स्रुचेव) जैसे होम करने के पात्र से घृत को छोड़ें वैसे (घृतम्) जल तथा (पितुः) अन्न को प्राप्त कराती हैं, उनके सकाश से हम लोग (विद्मना) जिससे विद्वान् सत्-असत् का विचार करता है, उस ज्ञान से (मनीषाम्) विचारवाली बुद्धि को (आ, जुहवाम) ग्रहण करें ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ये सूर्य की किरणें लोक-लोकान्तरों को चढ़कर शीघ्र जल वर्षा और उससे ओषधियों को उत्पन्न कर सब प्राणियों को सुखी करती हैं, वैसे राजादि जन प्रजाओं को सुखी करें ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्य्यकिरणाः कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

ये ऋभवो तरणित्वा वाजमरुहन् दिवो रजः सश्चिरे, अस्यान्तरिक्षस्य मध्ये वर्त्तमाना नृभ्यः स्रुचेव घृतं पितुरन्नं च सश्चिरे, तेभ्यो वयं विद्माना मनीषामा जुहवाम ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (मनीषाम्) प्रज्ञाम् (अन्तरिक्षस्य) आकाशस्य मध्ये (नृभ्यः) मनुष्येभ्यः (स्रुचेव) यथा होमोपकरणेन तथा (घृतम्) उदकमाज्यं वा (जुहवाम) आदद्याम (विद्मना) वेत्ति येन तेन विज्ञानेन (तरणित्वा) शीघ्रत्वेन (ये) (पितुः) अन्नम् (अस्य) (सश्चिरे) सज्जन्ति प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति वा (ऋभवः) किरणाः। आदित्यरश्मयोऽप्यृभव उच्यन्ते। निरु० ११। १६। (वाजम्) पृथिव्यादिकमन्नम् (अरुहन्) रोहन्ति (दिवः) प्रकाशितस्याकाशस्य मध्ये (रजः) लोकसमूहम् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथेम आदित्यरश्मयो लोकलोकान्तरानारुह्य सद्यो जलं वर्षयित्वौषधीरुत्पाद्य सर्वान् प्राणिनः सुखयन्ति तथा राजादयो जनाः प्रजाः सुखयन्तु ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी सूर्याची किरणे लोक लोकांतरी पोचून, जलवृष्टी करून, औषधी उत्पन्न करून सर्व प्राण्यांना सुखी करतात तसे राजा इत्यादींनी प्रजेला सुखी करावे. ॥ ६ ॥