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क्षेत्र॑मिव॒ वि म॑मु॒स्तेज॑नेनँ॒ एकं॒ पात्र॑मृ॒भवो॒ जेह॑मानम्। उप॑स्तुता उप॒मं नाध॑माना॒ अम॑र्त्येषु॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kṣetram iva vi mamus tejanenam̐ ekam pātram ṛbhavo jehamānam | upastutā upamaṁ nādhamānā amartyeṣu śrava icchamānāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्षेत्र॑म्ऽइव। वि। म॒मुः॒। तेज॑नेन। एक॑म्। पात्र॑म्। ऋ॒भवः॑। जेह॑मानम्। उप॑ऽस्तुताः। उ॒प॒ऽमम्। नाध॑मानाः। अम॑र्त्येषु। श्रवः॑। इ॒च्छमा॑नाः ॥ १.११०.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:110» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (उपस्तुताः) तीर आनेवालों से प्रशंसा को प्राप्त हुए (नाधमानाः) और लोगों से अपने प्रयोजन से याचे हुए (अमर्त्येषु) अविनाशी पदार्थों में (श्रवः) अन्न को (इच्छमानाः) चाहते हुए (ऋभवः) बुद्धिमान् जन (तेजनेन) अपनी उत्तेजना से (क्षेत्रमिव) खेत के समान (जेहमानम्) प्रयत्नों को सिद्ध करानेहारे (एकम्) एक (उपमम्) उपमा रूप अर्थात् अति श्रेष्ठ (पात्रम्) ज्ञानों के समूह का (वि, ममुः) विशेष मान करते हैं, वे सुख पाते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य खेत को जोत, बोय और सम्यक् रक्षा कर उससे अन्न आदि को पाके उसका भोजन कर आनन्दित होते हैं, वैसे वेद में कहे हुए कलाकौशल से प्रशंसित यानों को रचकर उनमें बैठ और उन्हें चला और एक देश से दूसरे देश में जाकर व्यवहार वा राज्य से धन को पाकर सुखी होते हैं ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

ये उपस्तुता नाधमाना अमर्त्येषु श्रव इच्छमाना ऋभवो मेधाविनस्तेजनेन क्षेत्रमिव जेहमानमेकमुपमं पात्रं विममुर्विविधं मान्ति ते सुखं प्राप्नुवन्ति ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (क्षेत्रमिव) यथा क्षेत्रं तथा (वि) (ममुः) मानं कुर्वन्ति (तेजनेन) तीव्रेण कर्मणा (एकम्) (पात्रम्) पत्राणां ज्ञानानां समूहम् (ऋभवः) (जेहमानम्) प्रयत्नसाधकम् (उपस्तुताः) उपगतेन स्तुताः (उपमम्) उपमानम् (नाधमानाः) याचमानाः (अमर्त्येषु) मरणधर्मरहितेषु पदार्थेषु (श्रवः) अन्नम् (इच्छमानाः) इच्छन्तः। व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा जनाः क्षेत्रं कर्षित्वा उप्त्वा संरक्ष्य ततोऽन्नादिकं प्राप्य भुक्त्वाऽऽनन्दन्ति तथा वेदोक्तकलाकौशलेन प्रशस्तानि यानानि रचित्वा तत्र स्थित्वा संचाल्य देशान्तरं गत्वा व्यवहारेण राज्येन वा धनं प्राप्य सुखयन्ति ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माणसे शेत नांगरून पेरणी करतात. परिपूर्ण रक्षण करून अन्न इत्यादी प्राप्त करून भोजन करतात व आनंदी होतात. तसे वेदोक्त कलाकौशल्ययुक्त प्रशंसित याने तयार करून त्याना चालवून देशदेशांतरी गमन करतात व व्यवहार करतात किंवा राज्याकडून धन प्राप्त करून सुखी होतात. ॥ ५ ॥