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मा च्छे॑द्म र॒श्मीँरिति॒ नाध॑मानाः पितॄ॒णां श॒क्तीर॑नु॒यच्छ॑मानाः। इ॒न्द्रा॒ग्निभ्यां॒ कं वृष॑णो मदन्ति॒ ता ह्यद्री॑ धि॒षणा॑या उ॒पस्थे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā cchedma raśmīm̐r iti nādhamānāḥ pitṝṇāṁ śaktīr anuyacchamānāḥ | indrāgnibhyāṁ kaṁ vṛṣaṇo madanti tā hy adrī dhiṣaṇāyā upasthe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। छे॒द्म॒। र॒श्मीन्। इति॑। नाध॑मानाः। पि॒तॄ॒णाम्। श॒क्तीः। अ॒नु॒ऽयच्छ॑मानाः। इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म्। कम्। वृष॑णः। म॒द॒न्ति॒। ता। हि। अद्री॒ इति॑। धि॒षणा॑याः। उ॒पऽस्थे॑ ॥ १.१०९.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:109» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:28» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उनको क्या न करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (वृषणः) बलवान् जन जो (अद्री) कभी विनाश को न प्राप्त होनेवाले हैं (ता) उन इन्द्र और अग्नियों को अच्छी प्रकार जान (इन्द्राग्निभ्याम्) इनसे (धिषणायाः) अति विचारयुक्त बुद्धि के (उपस्थे) समीप में स्थिर करने योग्य अर्थात् उस बुद्धि के साथ में लाने योग्य व्यवहार में (कम्) सुख को पाकर (मदन्ति) आनन्दित होते हैं वा उस सुख की चाहना करते हैं वैसे (पितॄणाम्) रक्षा करनेवाले ज्ञानी विद्वानों वा रक्षा से अनुयोग को प्राप्त हुए वसन्त आदि ऋतुओं के (रश्मीन्) विद्यायुक्त ज्ञानप्रकाशों को (नाधमानाः) ऐश्वर्य्य के साथ चाहते (शक्तीः) वा सामर्थ्यों को (अनु, यच्छमानाः) अनुकूलता के साथ नियम में लाते हुए हम लोग आनन्दित होते (हि) ही हैं और (इति) ऐसा जानके इन विद्याओं की जड़ को हम लोग (मा, छेद्म) न काटें ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - ऐश्वर्य्य की कामना करते हुए हम लोगों को कभी विद्वानों का सङ्ग और उनकी सेवा को छोड़ तथा वसन्त आदि ऋतुओं का यथायोग्य अच्छी प्रकार ज्ञान और सेवन का न त्यागकर अपना वर्त्ताव रखना चाहिये और विद्या तथा बुद्धि की उन्नति और व्यवहारसिद्धि उत्तम प्रयत्न के साथ करना चाहिये ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेताभ्यां किन्न कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

यथा वृषणो यावद्री वर्त्तते ता सम्यग्विज्ञायैताभ्यामिन्द्राग्निभ्यां धिषणाया उपस्थे कं प्राप्य मदन्ति तथा पितॄणां रश्मीन् नाधमानाः शक्तीरनुयच्छमाना वयं मदेमहीति विज्ञायैतदादिविद्यानां मूलं मा छेद्म ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) निषेधे (छेद्म) छिन्द्याम (रश्मीन्) विद्याविज्ञानतेजांसि (इति) प्रकारार्थे (नाधमानाः) ऐश्वर्य्येणाप्तिमिच्छुकाः (पितॄणाम्) पालकानां विज्ञानवतां विदुषां रक्षानुयुक्तानामृतूनां वा (शक्तीः) सामर्थ्यानि (अनुयच्छमानाः) आनुकूल्येन नियन्तारः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (इन्द्राग्नीभ्याम्) पूर्वोक्ताभ्याम् (कम्) सुखम् (वृषणः) बलवन्तः (मदन्ते) मदन्ते कामयन्ते। अत्र वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुमभावो व्यत्ययेन परस्मैपदं च। (ता) तौ (हि) खलु (अद्री) यौ न द्रवतो विनश्यतः कदाचित्तौ (धिषणायाः) प्रज्ञायाः (उपस्थे) समीपे स्थापयितव्ये व्यवहारे। अत्र घञर्थे कविधानमिति कः प्रत्ययः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - ऐश्वर्य्यकामैर्मनुष्यैर्न कदाचिद्विदुषां सेवासङ्गौ त्यक्त्वा वसन्तादीनामृतूनां यथायोग्ये विज्ञानसेवने च विहाय वर्त्तितव्यम्। विद्याबुद्ध्युन्नतिर्व्यवहारस्य सिद्धिश्च प्रयत्नेन कार्या ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ऐश्वर्याची कामना बाळगणाऱ्या लोकांनी कधी विद्वानांचा संग व त्यांची सेवा सोडू नये. वसंत ऋतूचे यथायोग्य ज्ञान व अंगीकार करावा. तसे वर्तन ठेवावे. उत्तम प्रयत्नाने विद्या, बुद्धीचा विकास व व्यवहारसिद्धी करावी. ॥ ३ ॥