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च॒क्राथे॒ हि स॒ध्र्य१॒॑ङ्नाम॑ भ॒द्रं स॑ध्रीची॒ना वृ॑त्रहणा उ॒त स्थ॑:। तावि॑न्द्राग्नी स॒ध्र्य॑ञ्चा नि॒षद्या॒ वृष्ण॒: सोम॑स्य वृष॒णा वृ॑षेथाम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

cakrāthe hi sadhryaṅ nāma bhadraṁ sadhrīcīnā vṛtrahaṇā uta sthaḥ | tāv indrāgnī sadhryañcā niṣadyā vṛṣṇaḥ somasya vṛṣaṇā vṛṣethām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

च॒क्राथे॑। हि। स॒ध्र्य॑क्। नाम॑। भ॒द्रम्। स॒ध्री॒ची॒ना। वृ॒त्र॒ऽह॒णौ॒। उ॒त। स्थः॒। तौ। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। स॒ध्र्य॑ञ्चा। नि॒ऽसद्य॑। वृष्णः॑। सोम॑स्य। वृ॒ष॒णा॒। आ। वृ॒षे॒था॒म् ॥ १.१०८.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:108» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:26» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (सध्रीचीना) एक साथ मिलने और (वृत्रहणौ) मेघ के हननेहारे (सध्र्यञ्चा) और एक साथ बड़ाई करने योग्य (निषद्य) नित्य स्थिर होकर (वृष्णः) पुष्टि करते हुए (सोमस्य) रसवान् पदार्थसमूह की (वृषणा) पुष्टि करनेहारे (इन्द्राग्नी) पूर्व कहे हुए अर्थात् पवन और सूर्य्यमण्डल (भद्रम्) वृष्टि आदि काम से परम सुख करनेवाले (सध्र्यक्) एक सङ्ग प्रकट होते हुए (नाम) जल को (चक्राथे) करते हैं (उत) और कार्य्यसिद्धि करनेहारे (स्थः) होते (वृषेथाम्) और सुखरूपी वर्षा करते हैं (तौ) उनको (हि) ही (आ) अच्छी प्रकार जानो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को अत्यन्त उपयोग करनेहारे वायु और सूर्य्यमण्डल को जानके कैसे उपयोग में न लाने चाहिये ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कथंभूतावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मनुष्या यौ सध्रीचीना वृत्रहणौ सध्र्यञ्चा निषद्य वृष्णः सोमस्य वृषणेन्द्राग्नी भद्रं सध्र्यङ् नाम चक्राथे कुरुत उतापि कार्यसिद्धिकारौ स्थो वृषेथां सुखं वर्षतस्तौ ह्या विजानन्तु ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (चक्राथे) कुरुतः (हि) खलु (सध्र्यक्) सहाञ्चतीति (नाम) जलम् (भद्रम्) वृष्ट्यादिद्वारा कल्याणकरम् (सध्रीचीना) सहाञ्चतः सङ्गतौ (वृत्रहणौ) वृत्रस्य मेघस्य हन्तारौ (उत) अपि (स्थः) भवतः (तौ) (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (सध्र्यञ्चा) सहप्रशंसनीयौ (निषद्य) नित्यं स्थित्वा। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (वृष्णः) पुष्टिकारकस्य (सोमस्य) रसवतः पदार्थसमूहस्य (वृषणा) पोषकौ। अत्र सर्वत्र द्विवचनस्थाने सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (आ) (वृषेथाम्) वर्षतः। व्यत्ययेन शः प्रत्यय आत्मनेपदं च ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरत्यन्तमुपयोगिनाविन्द्राग्नी विदित्वा कथं नोपयोजनीयाविति ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी अत्यंत उपयोगी असणारे वायू व सूर्यमंडळ जाणून उपयोगात का आणू नयेत? ॥ ३ ॥