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बृह॑स्पते॒ सद॒मिन्न॑: सु॒गं कृ॑धि॒ शं योर्यत्ते॒ मनु॑र्हितं॒ तदी॑महे। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bṛhaspate sadam in naḥ sugaṁ kṛdhi śaṁ yor yat te manurhitaṁ tad īmahe | rathaṁ na durgād vasavaḥ sudānavo viśvasmān no aṁhaso niṣ pipartana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बृह॑स्पते। सद॑म्। इत्। नः॒। सु॒ऽगम्। कृ॒धि॒। शम्। योः। यत्। ते॒। मनुः॑ऽहितम्। तत्। ई॒म॒हे॒। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒नवः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒र्त॒न॒ ॥ १.१०६.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:106» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बृहस्पते) परम अध्यापक अर्थात् उत्तम रीति से पढ़ानेवाले ! (ते) आपका जो (मनुर्हितम्) मन का हित करनेवाला (शम्) सुख वा (योः) धर्म, अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति कराना है तथा (यत्) जो (सदम् इत्) सदैव तुम (नः) हमारे लिये (सुगम्) सुख (कृधि) करो अर्थात् सिद्ध करो (तत्) उस उक्त समस्त को हम लोग (ईमहे) माँगते हैं। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य समझना चाहिये ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जैसे गुरुजन से विद्या ली जाती है, वैसे ही सब विद्वानों से विद्या लेकर दुःखों का विनाश करें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे बृहस्पते ते तव यन्मनुर्हितं शं योश्चास्ति यत्सदमित्वं नोऽस्मभ्यं सुगं कृधि तद्वयमीमहे। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पते) परमाध्यापक (सदम्) (इत्) एव (नः) अस्मभ्यम् (सुगम्) सुष्ठु गच्छन्ति यस्मिन् (कृधि) कुरु निष्पादय (शम्) सुखम् (योः) धर्मार्थमोक्षप्रापणम् (यत्) (ते) (मनुर्हितम्) मनुषो मनसो हितकारिणम् (तत्) (ईमहे) याचामहे (रथं न०) इति पूर्ववत् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यथाऽध्यापकाद्विद्या संगृह्यते तथैव सर्वेभ्यो विद्वद्भ्यश्च स्वीकृत्य दुःखानि विनाशनीयानि ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसे जशी गुरुजनांकडून विद्या प्राप्त करतात, तसेच सर्व विद्वानांकडून विद्या प्राप्त करून दुःखांचा नाश करावा. ॥ ५ ॥