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य॒ज्ञं पृ॑च्छाम्यव॒मं स तद्दू॒तो वि वो॑चति। क्व॑ ऋ॒तं पू॒र्व्यं ग॒तं कस्तद्बि॑भर्ति॒ नूत॑नो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajñam pṛcchāmy avamaṁ sa tad dūto vi vocati | kva ṛtam pūrvyaṁ gataṁ kas tad bibharti nūtano vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒ज्ञम्। पृ॒च्छा॒मि॒। अ॒व॒मम्। सः। तत्। दू॒तः। वि। वो॒च॒ति॒। क्व॑। ऋ॒तम्। पू॒र्व्यम्। ग॒तम्। कः। तत्। बि॒भ॒र्ति॒। नूत॑नः। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पूँछने और समाधान देनेवालों को परस्पर कैसे वर्त्ताव रखकर विद्या की वृद्धि करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! मैं आपके प्रति जिस (अवमम्) रक्षा आदि करनेवाले उत्तम वा निकृष्ट (यज्ञम्) समस्त विद्या से परिपूर्ण (पूर्व्यम्) पूर्वजों ने सिद्ध किया (ऋतम्) सत्यमार्ग वा उत्तम जल स्थान (क्व) कहाँ (गतम्) गया (कः) और कौन (नूतनः) नवीन जन (तत्) उसको (बिभर्त्ति) धारण करता है इसको (पृच्छामि) पूछता हूँ (सः) सो (दूतः) इधर-उधर से बात-चीत वा पदार्थों को जानते हुए आप (तत्) उस सब विषय को (विवोचति) विवेककर कहो। और अर्थ सब प्रथम के तुल्य जानना ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - विद्या को चाहते हुए ब्रह्मचारियों को चाहिये कि विद्वानों के समीप जाकर अनेक प्रकार के प्रश्नों को करके और उनसे उत्तर पाकर विद्या को बढ़ावें और हे पढ़ानेवाले विद्वानो ! तुम लोग अच्छा गमन जैसे हो वैसे आओ और हमसे इस संसार के पदार्थों की विद्या को सब प्रकार से जान औरों को पढ़ाकर सत्य और असत्य को यथार्थभाव से समझाओ ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तैः प्रष्टृभिः समाधातृभिश्च परस्परं कथं वर्त्तित्वा विद्यावृद्धिकार्येत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे विद्वन्नहं त्वां प्रति यमवमं यज्ञं पूर्व्यमृतं क्व गतं को नूतनस्तद्बिभर्त्तीति पृच्छामि स दूतो भवांस्तत्सर्वं विवोचति विविच्योपदिशतु। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञम्) सर्वविद्यामयम् (पृच्छामि) (अवमम्) रक्षादिसाधकमुत्तममर्वाचीनं वा (सः) भवान् (तत्) (दूतः) इतस्ततो वार्ताः पदार्थान् वा विजानन् (वि) विविच्य (वोचति) उच्याद्वदेत। अत्र लेटि वचधातोर्व्यत्ययेनौकारादेशः। (क्व) कुत्र (ऋतम्) सत्यमुदकं वा (पूर्व्यम्) पूर्वैः कृतम् (गतम्) प्राप्तम् (कः) (तत्) (बिभर्ति) दधाति (नूतनः) नवीनः। वित्तं मे० इति पूर्ववत् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - विद्यां चिकीर्षुभिर्ब्रह्मचारिभिर्विदुषां समीपं गत्वाऽनेकविधान् प्रश्नान् कृत्वोत्तराणि प्राप्य विद्या वर्धनीया। भो अध्यापका विद्वांसो यूयं स्वगतमागच्छत मत्तोऽस्य संसारस्य पदार्थसमूहस्य विद्या अभिज्ञाय सर्वानन्यानेवमेवाध्याप्य सत्यमसत्यं च यथार्थतया विज्ञापयत ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्या जाणू इच्छिणाऱ्या (जिज्ञासू) ब्रह्मचाऱ्यांनी विद्वानाजवळ जाऊन अनेक प्रकारचे प्रश्न विचारून त्यांच्याकडून उत्तर प्राप्त करून विद्या वाढवावी व हे अध्यापक विद्वानांनो ! तुम्ही सहजतेने गमन करा व या जगातील पदार्थांची विद्या सर्व प्रकारे जाणून इतरांना शिकवून सत्य व असत्य यथार्थभावाने समजावून सांगा. ॥ ४ ॥