वांछित मन्त्र चुनें

मो षु दे॑वा अ॒दः स्व१॒॑रव॑ पादि दि॒वस्परि॑। मा सो॒म्यस्य॑ श॒म्भुव॒: शूने॑ भूम॒ कदा॑ च॒न वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mo ṣu devā adaḥ svar ava pādi divas pari | mā somyasya śambhuvaḥ śūne bhūma kadā cana vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मो इति॑। सु। दे॒वाः॒। अ॒दः। स्वः॑। अव॑। पा॒दि॒। दि॒वः। परि॑। मा। सो॒म्यस्य॑। श॒म्ऽभुवः॑। शूने॑। भू॒म॒। कदा॑। च॒न। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस जगत् में विद्वान् जन कैसे पूछने के योग्य हैं, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवाः) विद्वानो ! तुम लोगों से (दिवः) सूर्य के प्रकाश से (परि) ऊपर (अदः) वह प्राप्त होनेहारा (स्वः) सुख (कदा, चन) कभी (मो, अव, पादि) विरुद्ध न उत्पन्न हुआ है। हम लोग (सोम्यस्य) ऐश्वर्य के योग्य (शंभुवः) सुख जिससे हो उस व्यवहार की (सु शूने) सुन्दर उन्नति में विरुद्ध भाव से चलनेहारे कभी (मा) (भूम) मत होवें। और अर्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि इस संसार में धर्म और सुख से विरुद्ध काम नहीं करें और पुरुषार्थ से निरन्तर सुख की उन्नति करें ॥ ३ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अत्र जगति विद्वांसः कथं प्रष्टव्या इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

देवा युष्माभिर्दिवस्पर्य्यदः स्वः कदाचन मोऽवपादि वयं सोम्यस्य शंभुवः सुशूने विरुद्धकारिणः कदाचिन् मा भूम। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मो) निषेधे (सु) शोभने। अत्र सुषामादित्वात् षत्वम्। (देवाः) विद्वांसः (अदः) प्राप्स्यमानम् (स्वः) सुखम् (अव) विरुद्धे (पादि) प्रतिपद्यतां प्राप्यताम् (दिवः) सूर्यप्रकाशात् (परि) उपरिभावे। अत्र पञ्चम्याः परावध्यर्थे। अ० ८। ३। ५१। इति विसर्जनीयस्य सः। (मा) निषेधे (सोम्यस्य) सोममैश्वर्यमर्हस्य (शंभुवः) सुखं भवति यस्मात्तस्य। अत्र कृतो बहुलमित्यपादाने क्विप्। (शूने) वर्धने। अत्र नपुंसके भावे क्तः। (भूम) भवेम (कदा) कस्मिन् काले (चन) अपि वित्तं, मे, अस्येति पूर्ववत् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरस्मिन् संसारे धर्मसुखविरुद्धं कर्म नैवाचरणीयम्। पुरुषार्थेन सुखोन्नतिः सततं कार्या ॥ ३ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी या संसारात धर्म व सुखाच्या विरुद्ध काम करू नये व पुरुषार्थाने सतत सुख वाढवावे ॥ ३ ॥