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ए॒नाङ्गू॒षेण॑ व॒यमिन्द्र॑वन्तो॒ऽभि ष्या॑म वृ॒जने॒ सर्व॑वीराः। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

enāṅgūṣeṇa vayam indravanto bhi ṣyāma vṛjane sarvavīrāḥ | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒ना। आ॒ङ्गू॒षेण॑। व॒यम्। इन्द्र॑ऽवन्तः। अ॒भि। स्या॒म॒। वृ॒जने॑। सर्व॑ऽवीराः। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.१०५.१९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:19 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उससे युक्त हमलोग कैसे होवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जिस (एना) इस (आङ्गूषेण) परम विद्वान् से (सर्ववीराः) समस्त वीरजन (इन्द्रवन्तः) जिनका परमैश्वर्य्ययुक्त सभापति है, वे (वयम्) हम लोग (वृजने) विद्याधर्मयुक्त बल में (अभि, स्याम) अभिमुख हों, अर्थात् सब प्रकार से उसमें प्रवृत्त हों (नः) हम लोगों के (तत्) उस विज्ञान को (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्य प्रकाश वा विद्या का प्रकाश ये सब (मामहन्ताम्) बढ़ावें ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जिसके पढ़ाने से विद्या और अच्छी शिक्षा बढ़े, उसके सङ्ग से समस्त विद्याओं का सर्वथा निश्चय करें ॥ १९ ॥इस सूक्त में समस्त विद्वानों के गुण और काम के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह –१०५ एकसौ पाँचवाँ सूक्त १५ पन्द्रहवाँ अनुवाक और २३ तेईसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तेन युक्ता वयं कीदृशा भवेमेत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

येनैनाङ्गूषेण विदुषा सर्ववीरा इन्द्रवन्तो वयं वृजनेऽभिष्याम नस्तन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्ताम् ॥ १९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एना) एनेन (आङ्गूषेण) परमविदुषा (वयम्) (इन्द्रवन्तः) परमैश्वर्य्ययुक्त इन्द्रस्तद्वन्तः (अभि) आभिमुख्ये (स्याम) भवेम (वृजने) विद्याधर्मयुक्ते बले। वृजनमिति बलना०। निघं० २। ९। (सर्ववीराः) सर्वे च ते वीराश्च। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यस्याध्यापनेन विद्यासुशिक्षे वर्धेतां तस्य संगेन सर्वा विद्याः सर्वथा निश्चेतव्याः ॥ १९ ॥ अत्र विश्वेषां देवानां गुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥।इति पञ्चोत्तरशततमं सूक्तं पञ्चदशोऽनुवाकस्त्रयोविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्याच्या शिकविण्याने विद्या व चांगले शिक्षण वाढते त्याच्या संगतीने विद्यांचा (शिकण्याचा) माणसांनी सर्वथा निश्चय करावा. ॥ १९ ॥