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त्रि॒तः कूपेऽव॑हितो दे॒वान्ह॑वत ऊ॒तये॑। तच्छु॑श्राव॒ बृह॒स्पति॑: कृ॒ण्वन्नं॑हूर॒णादु॒रु वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tritaḥ kūpe vahito devān havata ūtaye | tac chuśrāva bṛhaspatiḥ kṛṇvann aṁhūraṇād uru vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रि॒तः। कूपे॑। अव॑ऽहितः। दे॒वान्। ह॒व॒ते॒। ऊ॒तये॑। तत्। शु॒श्रा॒व॒। बृह॒स्पतिः॑। कृ॒ण्वन्। अं॒हू॒र॒णात्। उ॒रु। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.१७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:17 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (उरु) बहुत (तत्) उस विद्या के पाठ को (शुश्राव) सुनता है वह विज्ञान को (कृण्वन्) प्रकट करता हुआ (त्रितः) विद्या, शिक्षा और ब्रह्मचर्य्य इन तीन विषयों का विस्तार करने अर्थात् इनको बढ़ाने (कूपे) कूआ के आकार अपने हृदय में (अवहितः) स्थिरता रखने और (बृहस्पतिः) बड़ी वेदवाणी का पालनेहारा (अंहूरणात्) जिस व्यवहार में अधर्म है उससे अलग होकर (ऊतये) रक्षा, आनन्द, कान्ति, प्रेम, तृप्ति आदि अनेकों सुखों के लिये (देवान्) दिव्य गुणयुक्त विद्वानों वा दिव्य गुणों को (हवते) ग्रहण करता है। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम के तुल्य जानना चाहिये ॥ १७ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य वा देहधारी जीव अर्थात् स्त्री आदि भी अपनी बुद्धि से प्रयत्न के साथ पण्डितों की उत्तेजना से समस्त विद्याओं को सुन, मान, विचार और प्रकट कर खोटे गुण स्वभाव वा खोटे कामों को छोड़कर विद्वान् होता है, वह आत्मा और शरीर की रक्षा आदि को पाकर बहुत सुख पाता है ॥ १७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

य उरु तच्छ्रवणं शुश्राव स विज्ञानं कृण्वन् त्रितः कूपेऽवहितो बृहस्पतिरंहूरणात्पृथग्भूत्वोतये देवान् हवते। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रितः) यस्त्रीन् विषयान् विद्याशिक्षाब्रह्मचर्याणि तनोति सः। अत्र त्र्युपपदात्तनोतेरौणादिको डः प्रत्ययः। (कूपे) कूपाकारे हृदये (अवहितः) अवस्थितः (देवान्) दिव्यगुणान्वितान् विदुषो दिव्यान् गुणान् वा (हवते) गृह्णाति। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः स्थाने श्लोरभावः। (ऊतये) रक्षणाद्याय (तत्) विद्याध्यापनम् (शुश्राव) श्रुतवान् (बृहस्पतिः) बृहत्या वाचः पालकः (कृण्वन्) कुर्वन् (अंहूरणात्) अंहूरं पापं विद्यतेऽस्मिन् व्यवहारे ततः (उरु) बहु (वित्तं, मे, अस्य०) इति पूर्ववत् ॥ १७ ॥
भावार्थभाषाः - यो मनुष्यो देहधारी जीवास्स्वबुद्ध्या प्रयत्नेन विदुषां सकाशात्सर्वा विद्याः श्रुत्वा मत्वा निदिध्यास्य साक्षात्कृत्वा दुष्टगुणस्वभावपापानि त्यक्त्वा विद्वान् जायते स आत्मशरीररक्षणादिकं प्राप्य बहुसुखं प्राप्नोति ॥ १७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो माणूस किंवा देहधारी जीव अर्थात् स्त्री इत्यादीही आपल्या बुद्धीने प्रयत्नांनी पंडितांच्या प्रोत्साहनाने संपूर्ण विद्या ऐकून, मानून, विचार करून व प्रकट करून दुष्ट कर्म स्वभाव व खोट्या कामाचा त्याग करून विद्वान बनतो. तो आत्मा व शरीराचे रक्षण करून खूप सुख प्राप्त करतो. ॥ १७ ॥