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अग्ने॒ तव॒ त्यदु॒क्थ्यं॑ दे॒वेष्व॒स्त्याप्य॑म्। स न॑: स॒त्तो म॑नु॒ष्वदा दे॒वान्य॑क्षि वि॒दुष्ट॑रो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne tava tyad ukthyaṁ deveṣv asty āpyam | sa naḥ satto manuṣvad ā devān yakṣi viduṣṭaro vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। तव॑। त्यत्। उ॒क्थ्य॑म्। दे॒वेषु॑। अ॒स्ति॒। आप्य॑म्। सः। नः॒। स॒त्तः। म॒नु॒ष्वत्। आ। दे॒वान्। य॒क्षि॒। वि॒दुःऽत॑रः। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:22» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् प्रजाजनों में क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) समस्त विद्याओं को जाने हुए विद्वान् जन ! (तव) आपका (त्यत्) वह जो (आप्यम्) पाने योग्य (मनुष्वत्) मनुष्यों में जैसा हो वैसा (उक्थ्यम्) अतिउत्तम विद्यावचन (देवेषु) विद्वानों में (अस्ति) है। (सः) वह (सत्तः) अविद्या आदि दोषों को नाश करनेवाले (विदुष्टरः) अति विद्या पढ़े हुए आप (नः) हम लोगों को (देवान्) विद्वान् करते हुए उनकी (आयक्षि) सङ्गति को पहुँचाइये अर्थात् विद्वानों की पदवी को पहुँचाइये। और मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान है ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् समस्त विद्याओं को पढ़ाकर विद्वान् बनाने में कुशल है, उससे समस्त विद्या और धर्म के उपदेशों को सब मनुष्य ग्रहण करें, और से नहीं ॥ १३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वान् प्रजासु किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे अग्ने विद्वन् यस्य तव त्यद्यदाप्यं मनुष्वदुक्थ्यं देवेष्वस्ति स सत्तो विदुष्टरस्त्वं नोऽस्मान् देवान् संपादयन्नायक्षि। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) सकलविद्याविज्ञातः (तव) (त्यत्) तत् (उक्थ्यम्) प्रकृष्टं विद्यावचः (देवेषु) विद्वत्सु (अस्ति) वर्त्तते (आप्यम्) आप्तुं योग्यम्। अत्राप्लृधातोर्बाहुलकादौणादिको यन् प्रत्ययः। (सः) (नः) अस्मान् (सत्तः) अविद्यादिदोषान् हिंसित्वा विज्ञानप्रदः। अत्र बाहुलकाद् सद्लृधातोरौणादिकः क्तः प्रत्ययः। (मनुष्वत्) मनुःषु मनुष्येष्विव (आ) (देवान्) विदुषः (यक्षि) सङ्गमयेत् (विदुष्टरः) अतिशयेन विद्वान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - यः सर्वा विद्या अध्याप्य विद्वत्संपादने कुशलोऽस्ति तस्मात् सकलविद्याधर्मोपदेशान् सर्वे मनुष्या गृह्णीयुः नेतरस्मात् ॥ १३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो विद्वान संपूर्ण विद्या शिकवून विद्वत्ता उत्पन्न करविण्यात कुशल असतो त्याच्याकडून संपूर्ण विद्या व धर्मोपदेश सर्व माणसांनी ग्रहण करावा. इतरांकडून नाही. ॥ १३ ॥