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नव्यं॒ तदु॒क्थ्यं॑ हि॒तं देवा॑सः सुप्रवाच॒नम्। ऋ॒तम॑र्षन्ति॒ सिन्ध॑वः स॒त्यं ता॑तान॒ सूर्यो॑ वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

navyaṁ tad ukthyaṁ hitaṁ devāsaḥ supravācanam | ṛtam arṣanti sindhavaḥ satyaṁ tātāna sūryo vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नव्य॑म्। तत्। उ॒क्थ्य॑म्। हि॒तम्। देवा॑सः। सु॒ऽप्र॒वा॒च॒नम्। ऋ॒तम्। अ॒र्ष॒न्ति॒ सिन्ध॑वः। स॒त्यम्। त॒ता॒न॒। सूर्यः॑। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.१२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन इनके प्रति क्या-क्या उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवासः) विद्वानो ! आप जैसे (सिन्धवः) समुद्र (सत्यम्) जल की (अर्षन्ति) प्राप्ति करावें और (सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल (तातान) उसका विस्तार कराता अर्थात् वर्षा कराता है वैसे जो (ऋतम्) वेद, सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, विद्वानों के आचरण, अनुभव अर्थात् आप ही आप कोई बात मन से उत्पन्न होना और आत्मा की शुद्धता के अनुकूल (नव्यम्) उत्तम नवीन-नवीन व्यवहारों और (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय वचनों में होनेवाला (हितम्) सबका प्रेमयुक्त पदार्थ (तत्) उसको (सुप्रवाचनम्) अच्छी प्रकार पढ़ाना, उपदेश करना जैसे बने वैसे प्राप्त कीजिये। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समुद्रों के जल उड़कर ऊपर को चढ़ा हुआ सूर्य्य के ताप से फैलकर, बरस के, सब प्रजाजनों को सुख देता है, वैसे विद्वान् जनों को नित्य नवीन-नवीन विचार से गूढ़ विद्याओं को जान और प्रकाशित कर सबके हित का संपादन और सत्य धर्म्म के प्रचार से प्रजा को निरन्तर सुख देना चाहिये ॥ १२ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेतान् प्रति विद्वांसः किं किमुपदिशेयुरित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे देवासो भवन्तो यथा सिन्धवः सत्यमर्षन्ति सूर्यश्च ततान तथा यदृतं नव्यमुक्थ्यं हितं तत् सुप्रवाचनमर्षन्तु। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नव्यम्) उत्तमेषु नवेषु नूतनेषु व्यवहारेषु भवम् (तत्) (उक्थ्यम्) उक्थेषु प्रशंसनीयेषु (भवम्) (हितम्) सर्वाविरुद्धम् (देवासः) विद्वांसः (सुप्रवाचनम्) सुष्ठ्बध्यापनमुपदेशनं यथा तथा (ऋतम्) वेदसृष्टिक्रमप्रत्यक्षादिप्रमाणविद्वदाचरणानुभवस्वात्मपवित्रतानामनुकूलम् (अर्षन्ति) प्रापयन्तु। लेट्प्रयोगोऽयम्। (सिन्धवः) यथा समुद्राः (सत्यम्) जलम्। सत्यमित्युदकना०। निघं० १। १२। (तातान) विस्तारयति। तुजादित्वाद्दीर्घः। (सूर्य्यः) सविता। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सागरेभ्यो जलमुत्थितमूर्ध्वं गत्वा सूर्यातपेन वितत्य प्रवर्ष्य च सर्वेभ्यः प्रजाजनेभ्यः सुखं प्रयच्छति तथा विद्वज्जनैर्नित्यनवीनविचारेण गूढा विद्या ज्ञात्वा प्रकाश्य सकलहितं संपाद्य सत्यधर्मं विस्तार्य प्रजाः सततं सुखयितव्याः ॥ १२ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे समुद्रातील जल सूर्याच्या उष्णतेने प्रसृत होऊन वर जाते व वृष्टी होऊन सर्व प्रजेला सुख देते तसे विद्वानांनी नित्य नवीन नवीन विचाराने गूढ विद्या जाणून प्रकाशित करून सर्वांचे हित साधावे व सत्य धर्माच्या प्रचाराने प्रजेला निरंतर सुख द्यावे. ॥ १२ ॥