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अधा॑ मन्ये॒ श्रत्ते॑ अस्मा अधायि॒ वृषा॑ चोदस्व मह॒ते धना॑य। मा नो॒ अकृ॑ते पुरुहूत॒ योना॒विन्द्र॒ क्षुध्य॑द्भ्यो॒ वय॑ आसु॒तिं दा॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhā manye śrat te asmā adhāyi vṛṣā codasva mahate dhanāya | mā no akṛte puruhūta yonāv indra kṣudhyadbhyo vaya āsutiṁ dāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। म॒न्ये॒। श्रत्। ते॒। अ॒स्मै॒। अ॒धा॒यि॒। वृषा॑। चो॒द॒स्व॒। म॒ह॒ते। धना॑य। मा। नः॒। अकृ॑ते। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। योनौ॑। इन्द्र॑। क्षुध्य॑त्ऽभ्यः। वयः॑। आ॒ऽसु॒तिम्। दाः॒ ॥ १.१०४.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:104» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इन दोनों को परस्पर कैसी प्रतिज्ञा करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुहूत) अनेकों से सत्कार पाये हुए (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देने और शत्रुओं का नाश करनेहारे सभापति ! (वृषा) अति सुख वर्षानेवाले आप (अकृते) विना किये विचारे (योनौ) निमित्त में (नः) हम लोगों के (वयः) अभीष्ट अन्न और (आसुतिम्) सन्तान को (मा, दाः) मत छिन्न-भिन्न करो और (क्षुध्यद्भ्यः) भूखों के लिये अन्न, जल आदि (अधायि) धरो, हम लोगों को (महते) बहुत प्रकार के (धनाय) धन के लिये (चोदस्व) प्रेरणा कर, (अध) इसके अनन्तर (अस्मै) इस उक्त काम के लिये (ते) तेरी (श्रत्) यह श्रद्धा वा सत्य आचरण मैं (मन्ये) मानता हूँ ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - न्यायाधीश आदि राजपुरुषों को चाहिये कि जिन्होंने अपराध न किया हो उन प्रजाजनों को कभी ताड़ना न करें, सब दिन इनसे राज्य का कर धन लेवें, तथा इनको अच्छी प्रकार पाल और उन्नति दिलाकर विद्या और पुरुषार्थ के बीच प्रवृत्त कराकर आनन्दित करावें, सभापति आदि के इस सत्य काम को प्रजाजनों को सदैव मानना चाहिये ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेताभ्यां परस्परं कथं प्रतिज्ञातव्यमित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे पुरुहूतेन्द्र वृषा त्वमकृते योनौ नोऽस्माकं वय आसुतिं च मा दाः त्वया क्षुध्यद्भ्योऽन्नादिकमधायि नोऽस्मान् महते धनाय चोदस्व। अधास्मै ते तवैत्च्छ्रदहं मन्ये ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अनन्तरम् (मन्ये) विजानीयाम् (श्रत्) श्रद्धां सत्याचरणं वा (ते) तव (अस्मै) (अधायि) धीयताम् (वृषा) सुखवर्षयिता (चोदस्व) प्रेर्ष्व (महते) बहुविधाय (धनाय) (मा) निषेधे (नः) अस्माकमस्मान् वा (अकृते) अनिष्पादिते (पुरुहूत) अनेकैः सत्कृत (योनौ) निमित्ते (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद शत्रुविदारक (क्षुध्यद्भ्यः) बुभुक्षितेभ्यः (वयः) कमनीयमन्नम् (आसुतिम्) प्रजाम् (दाः) छिन्द्याः ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - न्यायाधीशादिभिराजपुरुषैरकृतापराधानां प्रजानां हिंसनं कदाचिन्नैव कार्य्यम्। सर्वदैताभ्यः करा ग्राह्या एनाः संपाल्य वर्धयित्वा विद्यापुरुषार्थयोर्मध्ये प्रवर्त्याऽऽनन्दनीयाः। एतत्सभापतीनां सत्यं कर्म प्रजास्थैः सदैव मन्तव्यम् ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्यांनी अपराध केलेला नाही त्या प्रजाजनांना न्यायाधीश व राजपुरुषांनी कधी ताडना करू नये. सदैव त्यांच्याकडून राज्याचा कर वसूल करावा व त्यांचे चांगल्या प्रकारे पालन करून त्यांना वाढवावे. विद्या व पुरुषार्थात प्रवृत्त करून आनंदित करावे. सभापती इत्यादीच्या सत्य कामाला प्रजाजनांनी सदैव मानावे. ॥ ७ ॥