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अव॒ त्मना॑ भरते॒ केत॑वेदा॒ अव॒ त्मना॑ भरते॒ फेन॑मु॒दन्। क्षी॒रेण॑ स्नात॒: कुय॑वस्य॒ योषे॑ ह॒ते ते स्या॑तां प्रव॒णे शिफा॑याः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ava tmanā bharate ketavedā ava tmanā bharate phenam udan | kṣīreṇa snātaḥ kuyavasya yoṣe hate te syātām pravaṇe śiphāyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अव॑। त्मना॑। भ॒र॒ते॒। केत॑ऽवेदाः। अव॑। त्मना॑। भ॒र॒ते॒। फेन॑म्। उ॒दन्। क्षी॒रेण॑। स्ना॒तः॒। कुय॑वस्य। योषे॒ इति॑। ह॒ते इति॑। ते इति॑। स्या॒ता॒म्। प्र॒व॒णे। शिफा॑याः ॥ १.१०४.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:104» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा और प्रजा परस्पर कैसे वर्त्तें, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - (केतवेदाः) जिसने धन जान लिया है वह राजपुरुष (त्मना) अपने से प्रजा के धन को (अव, भरते) अपनाकर धन लेता है अर्थात् अन्याय से ले लेता है और जो प्रजापुरुष (त्मना) अपने से (फेनम्) व्याज पर व्याज ले-लेकर बढ़ाये हुए वा और प्रकार अन्याय से बढ़ाये हुए राजधन को (अव, भरते) अधर्म से लेता है वे दोनों (क्षीरेण) जल से पूरे भरे हुए (उदन्) जलाशय अर्थात् नद-नदियों में (स्नातः) नहाते है उससे ऊपर से शुद्ध होते भी जैसे (कुयवस्य) धर्म और अधर्म से मिले जिसके व्यवहार हैं उस पुरुष की (योषे) अगले-पिछले विवाह की परस्पर विरोध करती हुई स्त्रियाँ (शिफायाः) अति काट करती हुई नदी के (प्रवणे) प्रबल बहाव में गिरकर (हते) नष्ट (स्याताम्) हों वैसे नष्ट हो जाते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जो प्रजा का विरोधी राजपुरुष वा राजा का विरोधी प्रजापुरुष है ये दोनों निश्चय है कि सुखोन्नति को नहीं पाते हैं। और जो राजपुरुष पक्षपात से अपने प्रयोजन के लिये प्रजापुरुषों को पीड़ा देके धन इकठ्ठा करता तथा जो प्रजापुरुष चोरी वा कपट आदि से राजधन को नाश करता है वे दोनों जैसे एक पुरुष की दो पत्नी परस्पर अर्थात् एक दूसरे से कलह करके क्रोध से नदी के बीच गिर के मर जाती है वैसे ही शीघ्र विनाश को प्राप्त हो जाते हैं, इससे राजपुरुष प्रजा के साथ और प्रजापुरुष राजा के साथ विरोध छोड़के परस्पर सहायकारी होकर सदा अपना वर्त्ताव रक्खें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजे परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

यः केतवेदा राजपुरुषस्त्मना प्रजाधनमवभरतेऽन्यायेन स्वीकरोति यश्च प्रजापुरुषस्त्मना फेनं वर्धितं राजधनमवभरतेऽधर्मेण स्वीकरोति तौ क्षीरेणोदन् जलेन पूर्णे जलाशये स्नात उपरिष्टाच्छुद्धौ भवतोऽपि यथा कुयवस्य योषे शिफायाः प्रवणे हते स्यातां तथैव विनष्टौ भवतः ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अव) (त्मना) आत्मना (भरते) विरुद्धं धरति (केतवेदाः) केतः प्रज्ञातं वेदो धनं येन सः। केत इति प्रज्ञानाम०। निघं० ३। ९। (अव) (त्मना) आत्मना (भरते) अन्यायेन स्वीकरोति (फेनम्) चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितं धनम् (उदन्) उदकमये जलाशये (क्षीरेण) जलेन। क्षीरमित्युदकना०। निघं० १। १२। (स्नातः) स्नानं कुरुतः (कुयवस्य) कुत्सिता धर्माधर्ममिश्रिता व्यवहारा यस्य तस्य (योषे) कृतपूर्वापरविवाहे परस्परं विरुद्धे स्त्रियाविव (हते) हिंसिते (ते) (स्याताम्) (प्रवणे) निम्नप्रवाहे (शिफायाः) नद्याः। अत्र शिञ् निशाने धातोरौणादिकः फक् प्रत्ययः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - यः प्रजाविरोधी राजपुरुषो राजविरोधी वा प्रजापुरुषोऽस्ति न खलु तौ सुखोन्नतिं कर्त्तुं शक्नुतः। यो राजपुरुषः पक्षपातेन स्वप्रयोजनाय प्रजापुरुषान् पीडयित्वा धनं संचिनोति। यः प्रजापुरुषस्तेयकपटाभ्यां राजधनस्य नाशं च तौ यथा सपत्न्यौ परस्परस्य कलहक्रोधाभ्यां नद्या मध्ये निमज्य प्राणांस्त्यजतस्तथा सद्यो विनश्यतः। तस्माद्राजपुरुषः प्रजापुरुषेण प्रजापुरुषो राजपुरुषेण च सह विरोधं त्यक्त्वाऽन्योऽन्यस्य सहायकारी भूत्वा सदा वर्त्तेत ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेथे प्रजेविरोधी राजपुरुष व राजाच्या विरोधी प्रजा असेल तर ते दोन्ही सुखाची वाढ करू शकत नाहीत व जो राजपुरुष भेदभाव करून आपल्या प्रयोजनासाठी प्रजेला त्रास देऊन धन एकत्र करतो व जी प्रजा चोरीने किंवा कपटाने राजधनाचा नाश करते ते दोन्ही एका पुरुषाच्या जशा दोन पत्नी परस्पर अर्थात एक दुसरीबरोबर भांडण करून क्रोधाने नदीत बुडून मरतात तसे तात्काळ नष्ट होतात. त्यासाठी राजाने प्रजेबरोबर व प्रजेने राजाबरोबर विरोध सोडून परस्परांना साह्य करणारे वर्तन करावे. ॥ ३ ॥