वांछित मन्त्र चुनें

ओ त्ये नर॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ गु॒र्नू चि॒त्तान्त्स॒द्यो अध्व॑नो जगम्यात्। दे॒वासो॑ म॒न्युं दास॑स्य श्चम्न॒न्ते न॒ आ व॑क्षन्त्सुवि॒ताय॒ वर्ण॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

o tye nara indram ūtaye gur nū cit tān sadyo adhvano jagamyāt | devāso manyuṁ dāsasya ścamnan te na ā vakṣan suvitāya varṇam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ओ इति॑। त्ये। नरः॑। इन्द्र॑म्। ऊ॒तये॑। गुः॒। नु। चि॒त्। तान्। स॒द्यः। अध्व॑नः। ज॒ग॒म्या॒त्। दे॒वासः॑। म॒न्युम्। दास॑स्य। श्च॒म्न॒न्। ते। नः॒। आ। व॒क्ष॒न्। सु॒ऽवि॒ताय। वर्ण॑म् ॥ १.१०४.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:104» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (त्ये) जो (नरः) सज्जन (ऊतये) रक्षा के लिये (इन्द्रम्) सभा सेना आदि के अधीश के (सद्यः) शीघ्र (ओ, गुः) सम्मुख प्राप्त होते हैं (तान्) उनको (चित्) भी यह सभापति (अध्वनः) श्रेष्ठ मार्गों को (जगम्यात्) निरन्तर पहुँचावे। तथा जो (देवासः) विद्वान् जन (दासस्य) अपने सेवक के (मन्युम्) क्रोध को (श्चम्नन्) निवृत्त करें (ते) वे (नः) हम लोगों की (सुविताय) प्रेरणा को प्राप्त हुए दास के लिये (वर्णम्) आज्ञापालन करने को (नु) शीघ्र (आ, वक्षन्) पहुँचावें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - जो प्रजा वा सेना के जन सत्य के राखने को सभा आदि के अधीशों के शरण को प्राप्त हों, उनकी वे यथावत् रक्षा करें। जो विद्वान् लोग वेद और उत्तम शिक्षाओं से मनुष्यों के क्रोध आदि दोषों को निवृत्तकर शान्ति आदि गुणों का सेवन करावें, वे सबको सेवन करने के योग्य हैं ॥ २ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

त्ये ये नर ऊतय इन्द्रं सद्य ओ गुस्तांश्चिदयमध्वनो जगम्याद्ये देवासो दासस्य मन्युं श्चम्नन्ते नोऽस्माकं सुविताय प्रेरिताय दासाय वर्णं न्वावक्षन् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ओ) आभिमुख्ये (त्ये) ये (नरः) (इन्द्रम्) सभादिपतिम् (ऊतये) रक्षार्थम् (गुः) प्राप्नुवन्ति (नु) शीघ्रम् (चित्) अपि (तान्) (सद्यः) (अध्वनः) सन्मार्गान् (जगम्यात्) भृशं गच्छेत् (देवासः) विद्वांसः (मन्युम्) क्रोधम्। मन्युरिति क्रोधनाम०। निघं० २। १३। (दासस्य) सेवकस्य (श्चम्नन्) हिंसन्तु श्चमुधातुर्हिंसार्थः। (ते) (नः) अस्माकम् (आ) (वक्षन्) वहन्तु प्रापयन्तु (सुविताय) प्रेरिताय दासाय (वर्णम्) आज्ञापालनस्वीकरणम् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - ये प्रजासेनास्था मनुष्याः सत्यपालनाय सभाद्यध्यक्षादीनां शरणं प्राप्नुयुस्तानेते यथावद्रक्षेयुः ये विद्वांसो वेदसुशिक्षाभ्यां मनुष्याणां दोषान्निवार्य्य शान्त्यादीन् सेवयेयुस्ते सर्वैः सेवनीयाः ॥ २ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे प्रजा व सेनेतील लोक सत्यरक्षणासाठी सभापती इत्यादीला शरण येतात. त्यांचे यथायोग्य रक्षण करावे. जे विद्वान लोक वेद व उत्तम शिक्षणाने माणसांच्या क्रोध इत्यादी दोषांना निवृत्त करून शांती इत्यादी गुणांचे सेवन करवितात त्यांना सर्वांनी ग्रहण करावे. ॥ २ ॥