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शुष्णं॒ पिप्रुं॒ कुय॑वं वृ॒त्रमि॑न्द्र य॒दाव॑धी॒र्वि पुर॒: शम्ब॑रस्य। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śuṣṇam pipruṁ kuyavaṁ vṛtram indra yadāvadhīr vi puraḥ śambarasya | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शुष्ण॑म्। पिप्रु॑म्। कुय॑वम्। वृ॒त्रम्। इ॒न्द्र॒। य॒दा। अव॑धीः। वि। पुरः॑। शम्ब॑रस्य। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.१०३.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:103» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सेनापति ! (यदा) जब सूर्य (शुष्णम्) बलवान् (कुवयम्) जिससे कि यवादि होते और (पिप्रुम्) जल आदि पदार्थों को परिपूर्ण करता उस (वृत्रम्) मेघ वा (शम्बरस्य) अत्यन्त वर्षनेवाले बलवान् मेघ की (पुरः) पूरी-पूरी घटा और घुमड़ी हुई मण्डलियों को हनता है वैसे शत्रुओं की नगरियों को (वि, अवधीः) मारते हो (तत्) तब (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्यलोक (नः) हम लोगों के (मामहन्ताम्) सत्कार कराने के हेतु होते हैं ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य के गुण हैं उनकी उपमा अर्थात् अनुसार लेकर अपने गुणों से, सेवकादिकों से और पृथिवी आदि लोकों से उपकारों को ले और शत्रुओं को मारकर निरन्तर सुखी हों ॥ ८ ॥इस सूक्त में ईश्वर, सूर्य और सेनाधिपति के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह १०३ एकसौ तीनवाँ सूक्त और १७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे इन्द्र यदा त्वं यथा सूर्यः शुष्णं कुवयं पिप्रुं वृत्रं शम्बरस्य पुरश्च व्यवधीस्तन् मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मान् मामहन्ताम्, सत्कारहेतवो भवेयुः ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शुष्णम्) बलवन्तम् (प्रिप्रुम्) प्रपूरकम्। अत्र पृधातोर्बाहुलकादौणादिकः कुः प्रत्ययः। (कुयवम्) कौ पृथिव्यां यवा यस्मात् तम् (वृत्रम्) मेघं शत्रुं वा (इन्द्र) (यदा) (अवधीः) हंसि (वि) (पुरः) पुराणि (शम्बरस्य) मेघस्य बलवतः शत्रोर्वा। शम्बर इति मेघना०। निघं० १। १०। बलनामसु च। निघं० २। ९। (तन्नो, मित्रो०) इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सूर्यगुणास्तानुपमीकृत्य स्वैगुणैर्भृत्यादिभ्यः पृथिव्यादिभ्यश्चोपकारान् संगृह्य शत्रून् हत्वा सततं सुखयितव्यम् ॥ ८ ॥अत्रेश्वरसूर्य्यसेनाधिपतीनां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति १०३ त्र्युत्तरमेकशततमं सूक्तं १७ सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सूर्याचे गुण (मेघरूपी शत्रूचे हनन) जाणून माणसांनी आपल्या गुणांनी व सेवक इत्यादींकडून आणि पृथ्वी इत्यादी लोकांकडून उपकार घ्यावा व शत्रूंचा नाश करून सतत सुखी व्हावे ॥ ८ ॥