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अ॒स्य श्रवो॑ न॒द्य॑: स॒प्त बि॑भ्रति॒ द्यावा॒क्षामा॑ पृथि॒वी द॑र्श॒तं वपु॑:। अ॒स्मे सू॑र्याचन्द्र॒मसा॑भि॒चक्षे॑ श्र॒द्धे कमि॑न्द्र चरतो वितर्तु॒रम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asya śravo nadyaḥ sapta bibhrati dyāvākṣāmā pṛthivī darśataṁ vapuḥ | asme sūryācandramasābhicakṣe śraddhe kam indra carato vitarturam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्य। श्रवः॑। न॒द्यः॑। स॒प्त। बि॒भ्र॒ति॒। द्यावा॒क्षामा॑। पृ॒थि॒वी। द॒र्श॒तम्। वपुः॑। अ॒स्मे इति॑। सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसा॑। अ॒भि॒ऽचक्षे॑। श्र॒द्धे। कम्। इ॒न्द्र॒। च॒र॒तः॒। वि॒ऽत॒र्तु॒रम् ॥ १.१०२.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:102» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर और अध्यापक के काम से क्या होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य के देनेवाले ! (अस्य) निःशेष विद्यायुक्त जगदीश्वर का वा समस्त विद्या पढ़ानेहारे आप लोगों का (श्रवः) सामर्थ्य वा अन्न और (सप्त) सात प्रकार की स्वादयुक्त जलवाली (नद्यः) नदी (दर्शतम्) देखने और (वितर्त्तुरम्) अनेक प्रकार के नौका आदि पदार्थों से तरने योग्य महानद में तरने के अर्थ (कम्) सुख करनेहारे (वपुः) रूप को (बिभ्रति) धारण करती वा पोषण कराती तथा (द्यावाक्षामा) प्रकाश और भूमि मिलकर वा (पृथिवी) अन्तरिक्ष (सूर्याचन्द्रमसा) सूर्य और चन्द्रमा आदि लोक धरते पुष्ट कराते हैं, ये सब (अस्मे) हम लोगों के (अभिचक्षे) सुख के सम्मुख देखने (श्रद्धे) और श्रद्धा कराने के लिये प्रकाश और भूमि वा सूर्य-चन्द्रमा दो-दो (चरतः) प्राप्त होते तथा अन्तरिक्ष प्राप्त होता और भी उक्त पदार्थ प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर की रचना से पृथिवी आदि लोक और उनमें रहनेवाले पदार्थ अपने-अपने रूप को धारण करके सब प्राणियों के देखने और श्रद्धा के लिये हो और सुख को उत्पन्न कर चालचलन के निमित्त होते हैं परन्तु किसी प्रकार विद्या के विना इन सांसारिक पदार्थों से सुख नहीं होता, इससे सबको चाहिये कि ईश्वर की उपासना और विद्वानों के सङ्ग से लोकसम्बन्धी विद्या को पाकर सदा सुखी होवें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वराध्यापककर्मणा किं जायत इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे इन्द्रास्य तव श्रवः सप्तनद्यो दर्शतं वितर्त्तुर कं वपुर्बिभ्रति द्यावाक्षामा पृथिवी सूर्य्याचन्द्रमसा च बिभ्रत्येते सर्व अस्मे अभिचक्ष श्रद्धे चरन्ति चरतः चरन्ति चरतो वा ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) अखिलविद्यस्य जगदीश्वरस्य सर्वविद्याध्यापकस्य वा (श्रवः) सामर्थ्यमन्नं वा (नद्यः) सरितः (सप्त) सप्तविधाः स्वादोदकाः (बिभ्रति) धरन्ति पोषयन्ति वा (द्यावाक्षामा) प्रकाशभूमी। अत्र दिवो द्यावा। अ० ६। ३। २९। अनेन दिव् शब्दस्य द्यावादेशः। (पृथिवी) अन्तरिक्षम् (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् (वपुः) शरीरम् (अस्मे) अस्माकम् (सूर्याचन्द्रमसा) सूर्यचन्द्रादिलोकसमूहो (अभिचक्षे) आभिमुख्येन दर्शनाय (श्रद्धे) श्रद्धारणाय (कम्) सुखकारकम् (इन्द्र) विद्यैश्वर्यप्रद (चरतः) प्राप्नुतः। (वितर्तुरम्) अतिशयेन विविधप्लवे तरणार्थम्। अत्र यङ्लुङन्तात्तॄधातोरच् प्रत्ययो बहुलं छन्दसीत्युत्वम् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। परमेश्वरस्य सर्जनेन पृथिव्यादयो लोकास्तत्रस्थाः पदार्थाश्च स्वं स्वं रूपं धृत्वा सर्वेषां प्राणिनां दर्शनाय श्रद्धायै च भूत्वा सुखं संपाद्य गमनागमनादिव्यवहारहेतवो भवन्ति। नहि कथंचिद् विद्यया विनैतेभ्यः सुखानि संजायन्ते तस्मादीश्वरस्योपासनेन विदुषां सङ्गेन च लोकविद्याः प्राप्य सर्वैः सदा सुखयितव्यम् ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. परमेश्वरनिर्मित पृथ्वी इत्यादी गोल व त्यात राहणारे पदार्थ आपापल्या रूपांना धारण करून सर्व प्राण्यांच्या दर्शनासाठी व श्रद्धेसाठी असून, सुख-दुःख उत्पन्न करून गमनागमन व्यवहारासाठी असतात; परंतु कोणत्याही प्रकारे विद्येशिवाय या सांसारिक पदार्थांनी सुख मिळत नाही. यामुळे सर्वांनी ईश्वराची उपासना व विद्वानांच्या संगतीने गोलांसंबंधी विद्या प्राप्त करून सदैव सुखी व्हावे. ॥ २ ॥