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यद्वा॑ मरुत्वः पर॒मे स॒धस्थे॒ यद्वा॑व॒मे वृ॒जने॑ मा॒दया॑से। अत॒ आ या॑ह्यध्व॒रं नो॒ अच्छा॑ त्वा॒या ह॒विश्च॑कृमा सत्यराधः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad vā marutvaḥ parame sadhasthe yad vāvame vṛjane mādayāse | ata ā yāhy adhvaraṁ no acchā tvāyā haviś cakṛmā satyarādhaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। वा॒। म॒रु॒त्वः॒। प॒र॒मे। स॒धऽस्थे॑। यत्। वा॒। अ॒व॒मे। वृ॒जने॑। मा॒दया॑से। अतः॑। आ। या॒हि॒। अ॒ध्व॒रम्। नः॒। अच्छ॑। त्वा॒ऽया। ह॒विः। च॒कृ॒म॒। स॒त्य॒ऽरा॒धः॒ ॥ १.१०१.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शाला आदि का अधिपति कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुत्वः) प्रशंसित विद्यायुक्त (सत्यराधः) विद्या आदि सत्यधनोंवाले विद्वान् ! (यत्) जिस कारण आप (परमे) अत्यन्त उत्कृष्ट (सधस्थे) स्थान में और (यत्) जिस कारण (वा) उत्तम (अवमे) अधम (वा) वा मध्यम व्यवहार में (वृजने) कि जिसमें मनुष्य दुःखों को छोड़े (मादयासे) आनन्द देते हैं (अतः) इस कारण (नः) हम लोगों के (अध्वरम्) पढ़ने-पढ़ाने के अहिंसनीय अर्थात् न छोड़ने योग्य यज्ञ को (अच्छ) अच्छे प्रकार (आ, याहि) आओ प्राप्त होओ (त्वाया) आपके साथ हम लोग (हविः) ग्रहण करने योग्य विशेष ज्ञान को (चकृम) करें अर्थात् उस विद्या को प्राप्त होवें ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जो विद्वान् सर्वत्र आनन्दित कराने और विद्या का देनेहारा सत्यगुण, कर्म और स्वभावयुक्त है, उसके संग से निरन्तर समस्त विद्या और उत्तम शिक्षा को पाकर सर्वदा आनन्दित होवें ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शालाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मरुत्वः सत्यराधो विद्वान् यद्यतस्त्वं परमे यद्यतो वाऽवमे वा वृजने व्यवहारे मादयासेऽतो नोऽस्माकमध्वरमच्छायाहि त्वाया सह वर्त्तमाना वयं हविश्चकृम ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यतः (वा) उत्तमे (मरुत्वः) प्रशस्तविद्यायुक्त (परमे) अत्यन्तोत्कृष्टे (सधस्थे) स्थाने (यत्) यतः (वा) मध्यमे व्यवहारे (अवमे) निकृष्टे (वृजने) वर्जन्ति दुःखानि जना यत्र तस्मिन् व्यवहारे (मादयासे) हर्षयसे। लेट्प्रयोगोऽयम्। (अतः) कारणात् (आ) (याहि) प्राप्नुयाः (अध्वरम्) अध्ययनाध्यापनाख्यमहिंसनीयं यज्ञम् (नः) अस्माकम् (अच्छ) उत्तमरीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (त्वाया) त्वया सुपां सुलुगिति तृतीयास्थानेऽयाजादेशः। (हविः) आदेयं विज्ञानम् (चकृम) कुर्याम। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (सत्यराधैः) सत्यानि राधांसि विद्यादिधनानि यस्य तत्सम्बुद्धौ ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यो विद्वान् सर्वत्रानन्दयिता विद्याप्रदाता सत्यगुणकर्मस्वभावोऽस्ति तत्सङ्गेन सततं सर्वा विद्याः सुशिक्षाश्च प्राप्य सर्वदानन्दितव्यम् ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो विद्वान सर्वत्र आनंद पसरविणारा, विद्या देणारा, सत्य गुण, कर्म, स्वभावयुक्त आहे, त्याच्या संगतीने निरंतर विद्या व उत्तम शिक्षण प्राप्त करून माणसांनी नेहमी आनंदित राहावे. ॥ ८ ॥