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तम॑प्सन्त॒ शव॑स उत्स॒वेषु॒ नरो॒ नर॒मव॑से॒ तं धना॑य। सो अ॒न्धे चि॒त्तम॑सि॒ ज्योति॑र्विदन्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam apsanta śavasa utsaveṣu naro naram avase taṁ dhanāya | so andhe cit tamasi jyotir vidan marutvān no bhavatv indra ūtī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। अ॒प्स॒न्त॒। शव॑सः। उ॒त्ऽस॒वेषु॑। नरः॑। नर॑म्। अव॑से। तम्। धना॑य। सः। अ॒न्धे। चि॒त्। तम॑सि। ज्योतिः॑। वि॒द॒त्। म॒रुत्वा॑न्। नः॒। भ॒व॒तु॒। इन्द्रः॑। ऊ॒ती ॥ १.१००.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:100» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह किस प्रकार का हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (नरम्) सब काम को यथायोग्य चलानेहारे जिस मनुष्य को (शवसः) विद्या, बल तथा धन आदि अनेक बल (अप्सन्त) प्राप्त हों (तम्) उस अत्यन्त प्रबल युद्ध करने से भी युद्ध करनेवाले सेना आदि के अधिपति को (उत्सवेषु) उत्सव अर्थात् आनन्द के कामों में सत्कार देओ तथा (तम्) उसको (नरः) श्रेष्ठाधिकार पानेवाले मनुष्य (अवसे) रक्षा आदि व्यवहार और (धनाय) उत्तम धन पाने के लिये प्राप्त होवें, जो (अन्धे) अन्धे के तुल्य करनेहारे (तमसि) अन्धेरे में (ज्योतिः) सूर्य्य आदि के उजेले रूप प्रकाश (चित्) ही को (विदत्) प्राप्त होता है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी सेना में उत्तम वीरों को राखनेहारा (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापति वा सभापति (नः) हम लोगों के (ऊती) अच्छे आनन्दों के लिये (भवतु) हो ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो शत्रुओं को जीत और धार्मिकों की पालना कर विद्या और धन की उन्नति करता है, जिसको पाकर जैसे सूर्य्यलोक का प्रकाश है वैसे विद्या के प्रकाश को प्राप्त होते हैं, उस मनुष्य को आनन्द-मङ्गल के दिनों में आदर-सत्कार देवें, क्योंकि ऐसे किये विना किसी को अच्छे कामों में उत्साह नहीं हो सकता ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मनुष्या यं नरं शवसोऽप्सन्त तमुत्सवेषु सत्कुरुत तं नरोऽवसे धनायाप्सन्त। योऽन्धे तमसि ज्योतिश्चिदिव विजयं विदद्विन्दति स मरुत्वानिन्द्रो न ऊती भवतु ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) अतिरथं सेनाद्यधिपतिम् (अप्सन्त) प्राप्नुवन्तु। अत्र प्साधातोर्लङि छन्दस्युभयथेत्यार्द्धधातुकत्वादातो लोप इटि चेत्याकारलोपश्च। प्सातीति गतिकर्मा०। निघं० २। १४। (शवसः) बलानि (उत्सवेषु) आनन्दयुक्तेषु कर्मसु (नरः) नेतारो मनुष्याः (नरम्) नायकम् (अवसे) रक्षणाद्याय (तम्) (धनाय) उत्तमधनप्राप्तये (सः) (अन्धे) अन्धकारके (चित्) इव (तमसि) अन्धकारे (ज्योतिः) सूर्य्यादिप्रकाशः (विदत्) विन्दति। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यः शत्रून्विजित्य धार्मिकान् संरक्ष्य विद्याधने उन्नयति यं प्राप्य सूर्य्यप्रकाशमिव विद्याप्रकाशमाप्नुवन्ति तं जनमानन्ददिवसेषु सत्कुर्युः। नह्येवं विना कस्यचिच्छ्रेष्ठेषु कर्मसूत्साहो भवितुं शक्यः ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जो शत्रूंना जिंकून धार्मिक लोकांचे पालन करून विद्या व धन वृद्धिंगत करतो, सूर्य जसा प्रकाश देतो तशी त्याच्या संगतीने विद्या प्राप्त होते त्या माणसाचा आनंदाने सत्कार करावा. कारण असे केल्याखेरीज कुणालाही चांगल्या कामात उत्साह वाटणार नाही. ॥ ८ ॥