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यस्याज॑स्रं॒ शव॑सा॒ मान॑मु॒क्थं प॑रिभु॒जद्रोद॑सी वि॒श्वत॑: सीम्। स पा॑रिष॒त्क्रतु॑भिर्मन्दसा॒नो म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasyājasraṁ śavasā mānam uktham paribhujad rodasī viśvataḥ sīm | sa pāriṣat kratubhir mandasāno marutvān no bhavatv indra ūtī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्य॑। अज॑स्रम्। शव॑सा। मान॑म्। उ॒क्थम्। प॒रि॒ऽभु॒जत्। रोद॑सी॒ इति॑। वि॒श्वतः॑। सी॒म्। सः। पा॒रि॒ष॒त्। क्रतु॑ऽभिः। म॒न्द॒सा॒नः। म॒रुत्वा॑न्। नः॒। भ॒व॒तु॒। इन्द्रः॑। ऊ॒ती ॥ १.१००.१४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:100» मन्त्र:14 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जिस सभा आदि के अधीश के (शवसा) शारीरिक तथा आत्मिक बल से युक्त प्रजाजन (मानम्) सत्कार (उक्थम्) वेदविद्या तथा (सीम्) धर्म न्याय की मर्यादा को (विश्वतः) सब ओर से (अजस्रम्) निरन्तर पालन और जो (रोदसी) विद्या के प्रकाश और पृथिवी के राज्य को भी (परिभुजत्) अच्छे प्रकार पालन करे। जो (क्रतुभिः) उत्तम बुद्धिमानी के कामों के साथ (मन्दसानः) प्रशंसा आदि से परिपूर्ण हुआ सुखों से प्रजाओं को (पारिषत्) पालता है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी सेना में उत्तम वीरों का रखनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् सभापति (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार को सिद्ध करनेवाला निरन्तर (भवतु) होवे ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - जो सत्पुरुषों का मान, दुष्टों का तिरस्कार, पूरी विद्या, धर्म की मर्यादा, पुरुषार्थ और आनन्द कर सके, वही सभाध्यक्षादि अधिकार के योग्य हो ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

यस्य शवसा प्रजाः मानुमुक्थं सीं विश्वतोऽजस्रं परिभुजद्रोदसी च यः क्रतुभिर्मन्दसानः सुखैः प्रजाः पारिषत् स मरुत्वानिन्द्रो न ऊत्यजस्रं भवतु ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (अजस्रम्) सततम् (शवसा) शरीरात्मबलेन (मानम्) सत्कारम् (उक्थम्) वेदविद्याः (परिभुजत्) सर्वतो भुञ्ज्यात् पालयेत्। अत्र भुजधातोर्लिटि विकरणव्यत्ययेन शः। (रोदसी) विद्याप्रकाशपृथिवीराज्ये (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) धर्म्मन्यायमर्य्यादापरिग्रहे। सीमिति परिग्रहार्थीयः। निरु० १। ७। (सः) (पारिषत्) सुखैः प्रजाः पालयेत्। अत्र पृधातोर्लेटि सिप्। सिब्बहुलं छन्दसि णित्। इति वार्त्तिकेन णित्वाद् वृद्धिः। (क्रतुभिः) श्रेष्ठैः कर्मभिः सह (मन्दसानः) प्रशंसादियुक्तः (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - यः सत्पुरुषाणां मानं दुष्टानां परिभवं पूर्णां विद्याधर्ममर्य्यादां पुरुषार्थमानन्दं च कर्त्तुं शक्नुयात् स एव सभाद्यध्यक्षाद्यधिकारमर्हेत् ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो सत्पुरुषांचा मान, दुष्टांचा तिरस्कार, पूर्ण विद्या, धर्माची मर्यादा, पुरुषार्थ व आनंद देऊ शकतो, तोच सभाध्यक्षाच्या अधिकारायोग्य आहे. ॥ १४ ॥