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एहि॒ स्तोमाँ॑ अ॒भिस्व॑रा॒भि गृ॑णी॒ह्या रु॑व। ब्रह्म॑ च नो वसो॒ सचेन्द्र॑ य॒ज्ञं च॑ वर्धय॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ehi stomām̐ abhi svarābhi gṛṇīhy ā ruva | brahma ca no vaso sacendra yajñaṁ ca vardhaya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। इ॒हि॒। स्तोमा॑न्। अ॒भि। स्व॒र॒। अ॒भि। गृ॒णी॒हि॒। आ। रु॒व॒। ब्रह्म॑। च॒। नः॒। व॒सो॒ इति॑। सचा॑। इन्द्र॑। य॒ज्ञम्। च॒। व॒र्ध॒य॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:10» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को परमेश्वर से क्या-क्या माँगना चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) स्तुति करने के योग्य परमेश्वर ! जैसे कोई सब विद्याओं से परिपूर्ण विद्वान् (स्तोमान्) आपकी स्तुतियों के अर्थों को (अभिस्वर) यथावत् स्वीकार करता कराता वा गाता है, वैसे ही (नः) हम लोगों को प्राप्त कीजिये। तथा हे (वसो) सब प्राणियों को वसाने वा उनमें वसनेवाले ! कृपा से इस प्रकार प्राप्त होके (नः) हम लोगों के (स्तोमान्) वेदस्तुति के अर्थों को (सचा) विज्ञान और उत्तम कर्मों का संयोग कराके (अभिस्वर) अच्छी प्रकार उपदेश कीजिये (ब्रह्म च) और वेदार्थ को (अभिगृणीहि) प्रकाशित कीजिये। (यज्ञं च) हमारे लिये होम ज्ञान और शिल्पविद्यारूप क्रियाओं को (वर्धय) नित्य बढ़ाइये॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष वेदविद्या वा सत्य के संयोग से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करते हैं, उनके हृदय में ईश्वर अन्तर्यामि रूप से वेदमन्त्रों के अर्थों को यथावत् प्रकाश करके निरन्तर उनके लिये सुख का प्रकाश करता है, इससे उन पुरुषों में विद्या और पुरुषार्थ कभी नष्ट नहीं होते॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः परमेश्वरात् किं किं याचनीयमित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे इन्द्र जगदीश्वर ! यथा कश्चित् सर्वविद्याऽभिज्ञो विद्वान् स्तोमानभिस्वरति यथावद्विज्ञानं गृणात्यारौति तथैव नोऽस्मानेहि। हे वसो ! कृपयैवमेत्य नोऽस्माकं स्तोमान् वेदस्तुतिसमूहार्थान् सचाभिस्वरब्रह्म- वेदार्थानभिगृणीहि यज्ञं च वर्धय॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ इहि) आगच्छ (स्तोमान्) स्तुतिसमूहान् (अभि) धात्वर्थे (स्वर) जानीहि प्राप्नुहि। स्वरतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४) (अभि) आभिमुख्ये। अभीत्याभिमुख्यं प्राह। (निरु०१.३) (गृणीहि) उपदिश (आ) समन्तात् (रुव) शब्दविद्यां प्रकाशय (ब्रह्म) वेदविद्याम् (च) समुच्चये (नः) अस्मान् अस्माकं वा (वसो) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् वा वसति सर्वेषु भूतेषु यस्तत्सम्बुद्धौ (सचा) ज्ञानेन सत्कर्मसु समवायेन वा (इन्द्र) स्तोतुमर्ह दातः (यज्ञम्) क्रियाकौशलम् (च) पुनरर्थे (वर्धय) उत्कृष्टं सम्पादय॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। ये सत्येन वेदविद्यायोगेन परमेश्वरं स्तुवन्ति प्रार्थयन्त्युपासते तेभ्य ईश्वरोऽन्तर्यामितया मन्त्राणामर्थान् यथावत्प्रकाशयित्वा सततं सुखं प्रकाशयति। अतो नैव तेषु कदाचिद्विद्यापुरुषार्थौ ह्रसतः॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जे पुरुष सत्याने व वेदविद्येने परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना व उपासना करतात, त्यांच्या हृदयात ईश्वर अन्तर्यामी रूपाने वेदमंत्रांच्या अर्थाचा यथायोग्य प्रकाश करून निरंतर सुख देतो. त्यामुळे त्या पुरुषांमध्ये विद्या व पुरुषार्थ कधी नष्ट होत नाहीत. ॥ ४ ॥