गाय॑न्ति त्वा गाय॒त्रिणोऽर्च॑न्त्य॒र्कम॒र्किणः॑। ब्र॒ह्माण॑स्त्वा शतक्रत॒ उद्वं॒शमि॑व येमिरे॥
gāyanti tvā gāyatriṇo rcanty arkam arkiṇaḥ | brahmāṇas tvā śatakrata ud vaṁśam iva yemire ||
गाय॑न्ति। त्वा॒। गा॒य॒त्रिणः॑। अर्च॑न्ति। अ॒र्कम्। अ॒र्किणः॑। ब्र॒ह्माणः॑। त्वा॒। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। उत्। वं॒शम्ऽइ॑व। ये॒मि॒रे॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब दशम सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस बात का प्रकाश किया है कि कौन-कौन पुरुष किस-किस प्रकार से इन्द्रसंज्ञक परमेश्वर का पूजन करते हैं-
स्वामी दयानन्द सरस्वती
तत्र के कथं तमिन्द्रं पूजयन्तीत्युपदिश्यते।
हे शतक्रतो ! ब्रह्माणः स्वकीयं वंशमुद्येमिरे इव गायत्रिणस्त्वां गायन्ति, अर्किणोऽर्कं त्वामर्चन्ति॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)जे लोक क्रमाने विद्या इत्यादी गुणांचे ग्रहण करून ईश्वराची प्रार्थना करून आपल्या उत्तम पुरुषार्थाच्या आश्रयाने परमेश्वराची प्रशंसा करतात व धन्यवाद देतात तेच अविद्या इत्यादी दुष्ट गुणांच्या निवृत्तीने शत्रूंना जिंकून दीर्घायुषी बनतात व विद्वान होऊन सर्व माणसांना सुखी करून सदैव आनंदात राहतात. या अर्थाने या दहाव्या सूक्ताची संगती नवव्या सूक्ताबरोबर जाणली पाहिजे. ॥ १२ ॥