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अ॒ग्निः पूर्वे॑भि॒र्ऋषि॑भि॒रीड्यो॒ नूत॑नैरु॒त। स दे॒वाँ एह व॑क्षति॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agniḥ pūrvebhir ṛṣibhir īḍyo nūtanair uta | sa devām̐ eha vakṣati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। पूर्वे॑भिः। ऋषि॑ऽभिः। ईड्यः॑। नूत॑नैः। उ॒त। सः। दे॒वान्। आ। इ॒ह। व॒क्ष॒ति॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:1» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त अग्नि किन से स्तुति करने वा खोजने योग्य है, इसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - यहाँ अग्नि शब्द के दो अर्थ करने में प्रमाण ये हैं कि-(इन्द्रं मित्रं०) इस ऋग्वेद के मन्त्र से यह जाना जाता है कि एक सद्ब्रह्म के इन्द्र आदि अनेक नाम हैं। तथा (तदेवाग्नि०) इस यजुर्वेद के मन्त्र से भी अग्नि आदि नामों करके सच्चिदानन्दादि लक्षणवाले ब्रह्म को जानना चाहिये। (ब्रह्म ह्य०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द ब्रह्म और आत्मा इन दो अर्थों का वाची है। (अयं वा०) इस प्रमाण में अग्नि शब्द से प्रजा शब्द करके भौतिक और प्रजापति शब्द से ईश्वर का ग्रहण होता है। (अग्नि०) इस प्रमाण से सत्याचरण के नियमों का जो यथावत् पालन करना है, सो ही व्रत कहाता है, और इस व्रत का पति परमेश्वर है। (त्रिभिः पवित्रैः०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से ज्ञानवाले तथा सर्वज्ञ प्रकाश करनेवाले विशेषण से अग्नि शब्द करके ईश्वर का ग्रहण होता है।
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सब विद्याओं को पढ़के औरों को पढ़ाते हैं तथा अपने उपदेश से सब का उपकार करनेवाले हैं वा हुए हैं वे पूर्व शब्द से, और जो कि अब पढ़नेवाले विद्याग्रहण के लिये अभ्यास करते हैं, वे नूतन शब्द से ग्रहण किये जाते हैं, क्योंकि जो मन्त्रों के अर्थों को जाने हुए धर्म और विद्या के प्रचार, अपने सत्य उपदेश से सब पर कृपा करनेवाले, निष्कपट पुरुषार्थी, धर्म की सिद्धि के लिये ईश्वर की उपासना करनेवाले और कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि के गुणों को जानकर अपने कर्मों के सिद्ध करनेवाले होते हैं, वे सब पूर्ण विद्वान् शुभ गुण सहित होने पर ऋषि कहाते हैं, तथा प्राचीन और नवीन विद्वानों के तत्त्व जानने के लिये युक्ति प्रमाणों से सिद्ध तर्क और कारण वा कार्य्य जगत् में रहनेवाले जो प्राण हैं, वे भी ऋषि शब्द से गृहीत होते हैं। इन सब से ईश्वर स्तुति करने योग्य और भौतिक अग्नि अपने-अपने गुणों के साथ खोज करने योग्य है। और जो सर्वज्ञ परमेश्वर ने पूर्व और वर्त्तमान अर्थात् त्रिकालस्थ ऋषियों को अपने सर्वज्ञपन से जान के इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहार ये दो विद्या दिखलाई हैं, इससे इसमें भूत वा भविष्य काल की बातों के कहने में कोई भी दोष नहीं आ सकता, क्योंकि वेद सर्वज्ञ परमेश्वर का वचन है। वह परमेश्वर उत्तम गुणों को तथा भौतिक अग्नि व्यवहार-कार्यों में संयुक्त किया हुआ उत्तम-उत्तम भोग के पदार्थों का देनेवाला होता है। पुराने की अपेक्षा एक पदार्थ से दूसरा नवीन और नवीन की अपेक्षा पहिला पुराना होता है। देखो, यही अर्थ इस मन्त्र का निरुक्तकार ने भी किया है कि-जो प्राकृत जन अर्थात् अज्ञानी लोगों ने प्रसिद्ध भौतिक अग्नि पाक बनाने आदि कार्य्यों में लिया है, वह इस मन्त्र में नहीं लेना, किन्तु सब का प्रकाश करनेहारा परमेश्वर और सब विद्याओं का हेतु, जिसका नाम विद्युत् है, वही भौतिक अग्नि यहाँ अग्नि शब्द से कहा गया है। (अग्निः पूर्वे०) इस मन्त्र का अर्थ नवीन भाष्यकारों ने कुछ का कुछ ही कर दिया है, जैसे सायणाचार्य ने लिखा है कि-(पुरातनैः०) प्राचीन भृगु, अङ्गिरा आदियों और नवीन अर्थात् हम लोगों को अग्नि की स्तुति करना उचित है। वह देवों को हवि अर्थात् होम में चढ़े हुए पदार्थ उनके खाने के लिये पहुँचाता है। ऐसा ही व्याख्यान यूरोपखण्डवासी और आर्यावर्त्त के नवीन लोगों ने अङ्ग्रेजी भाषा में किया है, तथा कल्पित ग्रन्थों में अब भी होता है। सो यह बड़े आश्चर्य की बात है, जो ईश्वर के प्रकाशित अनादि वेद का ऐसा व्याख्यान, जिसका क्षुद्र आशय और निरुक्त शतपथ आदि सत्य ग्रन्थों से विरुद्ध होवे, वह सत्य कैसे हो सकता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

सोऽग्निः कैः स्तोतव्योऽन्वेष्टव्यगुणो वास्तीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

योऽयमग्निः पूर्वेभिरुत नूतनैर्ऋषिभिरीड्योऽस्ति, स एह देवान् वक्षति समन्तात्प्रापयतु ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) परमेश्वरो भौतिको वा (पूर्वेभिः) अधीतविद्यैर्वर्त्तमानैः प्राक्तनैर्वा विद्वद्भिः (ऋषिभिः) मन्त्रार्थद्रष्टृभिरध्यापकैस्तर्कैः कारणस्थैः प्राणैर्वा। ऋषिप्रशंसा चैवमुच्चावचैरभिप्रायैर्ऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्ति। (निरु०७.३) इयमेव ऋषीणां प्रशंसा यतस्त एवमुच्चावचैर्महदल्पाभिप्रायैर्मन्त्रार्थैर्विदितैः प्रशंसनीया भवन्ति, तेषामृषीणां मन्त्रेषु दृष्टयोऽर्थादत्यन्तपुरुषार्थेन मन्त्रार्थानां यथावद्दर्शनानि ज्ञानानि भवन्ति तस्मात्ते पूज्याः सत्कर्त्तव्या आसन्निति। साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बूभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान्त्सम्प्रादुरुपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्मग्रहणायेमं ग्रन्थं समाम्नासिषुर्वेदं च वेदाङ्गानि च बिल्मं भिल्मं भासनमिति वा। (निरु०१.२०) कीदृशा ऋषयो भवन्तीत्यत्राह−यतः साक्षात्कृतधर्माणो धार्मिका आप्ता यैः सर्वा विद्या यथावद्विदिता, येऽवरेभ्यो ह्यसाक्षात्कृतवेदेभ्यो मनुष्येभ्य उपदेशेन वेदमन्त्रान् मन्त्रार्थांश्च सम्प्रादुः प्रकाशितवन्तस्तस्मात्ते ऋषयो जाताः। तैः कस्मै प्रयोजनाय मन्त्राध्यापनं तदर्थप्रकाशश्च कृत इत्यत्रोच्यते−उत्तरोत्तरं वेदार्थप्रचाराय। येऽवरेऽल्पबुद्धयो मनुष्या अध्ययनायोपदेशाय च ग्लायन्ते तेषां वेदार्थविज्ञानायेमं नैघण्टुकं निरुक्ताख्यं च ग्रन्थं समाम्नासिषुः सम्यगभ्यासार्थं रचितवन्तः। येन सर्वे मनुष्या वेदं वेदाङ्गानि च यथार्थतया विजानीयुरेवं कृपालव ऋषयो गण्यन्त इति। पुरस्तान्मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानब्रुवन्को न ऋषिर्भविष्यतीति। तेभ्य एतं तर्कमृषिं प्रायच्छन् मत्रार्थचिन्ताभ्यूहमभ्यूढम्। (निरु०१३.१२) अत्र तर्क एव ऋषिरुक्तः। अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः। (न्याय०१.१.४०) या तत्त्वज्ञानार्थोहा सैव तर्कशब्देन गृह्यते। प्राणा ऋषयः। (श०ब्रा०७.२.१.५) अत्रर्षिशब्देन प्राणा गृह्यन्ते। (ईड्यः) नित्यं स्तोतव्योऽन्वेष्टव्यश्च (नूतनैः) वेदार्थाध्येतृभिर्ब्रह्मचारिभिस्तर्कैः कार्यस्थैर्विद्यमानैः प्राणैर्वा (उत) अप्येव (सः) पूर्वोक्तः (देवान्) दिव्यानीन्द्रियाणि विद्यादिदिव्यगुणान् दिव्यान् ऋतून् दिव्यान् भोगान्वा। ऋतवो वै देवाः (श०ब्रा०७.२.२.२६) अनेन देवशब्देन दिव्यगुणविशिष्टा ऋतवो गृह्यन्ते। (आ) समन्तात् (इह) अस्मिन् वर्त्तमाने संसारे जन्मनि वा (वक्षति) वहतु प्रापयतु ॥२॥ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं समाचष्टे−अग्निर्यः पूर्वैर्ऋषिभिरीडितव्यो वन्दितव्योऽस्माभिश्च नवतरैः स देवानिहावहत्विति, स न मन्येतायमेवाग्निरित्यप्येते उत्तरे ज्योतिषी अग्नी उच्येते। (निरु०७.१६.२) ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये सर्वा विद्याः पठित्वा सत्योपदेशेन सर्वोपकारका अध्यापका वर्त्तन्ते पूर्वभूताश्च ते पूर्व इति शब्देन, ये चाध्येतारो विद्याग्रहणायाभ्यासं कुर्वन्ति ते नूतनैरिति पदेन गृह्यन्ते। ये मन्त्रार्थान् विदितवन्तो धर्मविद्ययोः प्रचारस्यैवानुष्ठातारः सत्योपदेशेन सर्वाननुग्रहीतारो निश्छलाः पुरुषार्थिनो मोक्षधर्मसिध्यर्थमीश्वरस्यैवोपासकाः कामार्थसिध्यर्थं भौतिकाग्नेर्गुणज्ञानेन कार्य्यसिद्धिं सम्पादयन्तो मनुष्यास्ते ऋषिशब्देन गृह्यन्ते। पूर्वेषां नूतनानां च ये युक्तिप्रमाणसिद्धास्तत्त्वज्ञानार्थास्तर्काः, ये च जगत्कारणस्थाः कार्य्यजगत्स्थाश्च प्राणाः सन्ति, तैः सह योगाभ्यासेनेश्वरो भौतिकश्चाग्निर्वन्द्योऽध्यन्वेष्टव्यगुणश्चास्ति। सर्वज्ञेनेश्वरेण स्वकीयज्ञानान्मनुष्यज्ञानापेक्षया-ऽतीतान् वर्त्तमानांश्चर्षीन् विदित्वाऽस्मिन् मन्त्र उपदिष्टे सति नैव कश्चिद्दोषो भवितुमर्हति, वेदस्य सर्वज्ञवाक्यत्वात्। सोऽयमेवमुपासितो व्यवहारकार्य्येषु संयोजितः सन् सर्वोत्तमान् गुणान् भोगांश्च प्रापयति। अत्र प्राचीनापेक्षया नवीनत्वं नवीनापेक्षया प्राचीनत्वं च विज्ञायत इति। अयमेवार्थो निरुक्तकारेणोक्तः। यस्तु खलु प्राकृतजनैः पाककरणादिषु प्रसिद्धः प्रयोज्यते, सोऽस्मिन् मन्त्रे नैव ग्राह्यः, किन्तु सर्वप्रकाशकः परमेश्वरः सर्वविद्याहेतुर्विद्युदाख्योऽर्थश्चाऽग्निशब्देनात्रोच्यत इति। एतन्मन्त्रार्थः सायणाचार्य्यादिभिरन्यथोक्तः। तद्यथा−पुरातनैर्भृग्वङ्गिरःप्रभृतिभिर्नूतनैरुतेदानींतनैरस्माभिरपि स्तुत्यः। देवान् हविर्भुज आवक्षतीत्यन्यथेदं व्याख्यानमस्ति। तद्वद्यूरोपखण्डस्थैरत्रस्थैश्च कृतमिंगलैण्डभाषायां वेदार्थयत्नादिषु च व्याख्यानमप्यसमञ्जसम्। कुतः, ईश्वरोक्तस्यानादिभूतस्य वेदस्येदृशं व्याख्यानं क्षुद्राशयं निरुक्तशतपथादिग्रन्थविरुद्धं चास्त्यत इति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सर्व विद्यांचे अध्ययन करून इतरांना शिकवितात व आपल्या उपदेशाने सर्वांवर उपकार करतात किंवा केलेला आहे त्यांना पूर्व व सध्या विद्याग्रहण करण्यासाठी जे अभ्यास करतात त्यांना नूतन म्हटले जाते. ते सर्व पूर्ण विद्वान शुभगुणयुक्त असल्यामुळे ऋषी म्हणविले जातात. कारण जे मंत्रांच्या अर्थांना जाणून धर्म व विद्येचा प्रचार, आपल्या सत्य उपदेशाने सर्वांवर कृपा करणारे, निष्कपटी, पुरुषार्थी, धर्म सिद्ध होण्यासाठी ईश्वराची उपासना करणारे व कार्याच्या सिद्धीसाठी भौतिक अग्नीच्या गुणांना जाणून आपले कार्य सिद्ध करणारे असतात. त्यांना ऋषी म्हटले जाते. प्राचीन व नवीन विद्वानांचे तत्त्व जाणण्यासाठी युक्ती व प्रमाणांनी सिद्ध झालेले तर्क व कारण किंवा कार्यजगतामध्ये राहणारे प्राण आहेत. या सर्वांद्वारे योगाभ्यासाने ईश्वर व भौतिक अग्नीचा आपापल्या गुणांबरोबर शोध घेणे योग्य आहे.
टिप्पणी: ज्या सर्वज्ञ परमेश्वराने पूर्वीच्या व वर्तमानकाळाच्या अर्थात त्रिकालस्थ ऋषींना आपल्या सर्वज्ञतेने जाणून या मंत्रात परमार्थ व व्यवहार या दोन विद्या दर्शविलेल्या आहेत, त्यामुळे यात भूत किंवा भविष्याच्या गोष्टी सांगण्यात कोणताही दोष येऊ शकत नाही. कारण वेद सर्वज्ञ परमेश्वराचे वचन आहे. तो परमेश्वर उत्तम गुणांना व व्यावहारिक कार्यात प्रयुक्त केलेला भौतिक अग्नी उत्तम उत्तम भोग्य पदार्थ देणारा आहे. जुन्याच्या तुलनेत एका पदार्थापेक्षा दुसरा नवीन व नवीनपेक्षा पहिला जुना असतो. या मंत्राचा हाच अर्थ निरुक्तकारानेही केलेला आहे. प्राकृत लोकांनी अर्थात अज्ञानी लोकांनी प्रसिद्ध असलेला भौतिक अग्नी (शिजविण्याचे वगैरे कार्य) असा घेतलेला आहे. तो या मंत्रात घेऊ नये. तर सर्वांचा प्रकाशक परमेश्वर व सर्व विद्यांचा हेतू असलेली विद्युत, तोच भौतिक अग्नी, असा अग्नी या शब्दाचा अर्थ केलेला आहे. (अग्नि. पूर्वे. ) या मंत्राचा अर्थ नवीन भाष्यकारांनी वेगळाच लावलेला आहे. जसे सायणाचार्यांनी लिहिलेले आहे - (पुरातनैः. ) प्राचीन भृगू, अंगिरा इत्यादींनी व नवीन अर्थात आम्ही लोकांनी अग्नीची स्तुती करणे योग्य आहे. तो देवांना हवि अर्थात होमात घातलेल्या पदार्थांना त्यांच्या भोजनासाठी पोचवितो. अशीच व्याख्या युरोपातील व आर्यावर्तातील नवीन लोकांनी इंग्रजी भाषेत केलेली आहे व काल्पनिक ग्रंथात आजही होत आहे. आश्चर्य हे की ईश्वराकडून प्रकट झालेली अनादि वेदाची व्याख्या व ज्याचा क्षुद्र आशय निरुक्त शतपथ इत्यादी सत्य ग्रंथांच्या विरुद्ध आहे ती व्याख्या सत्य कशी असू शकेल? ॥ २ ॥