Word-Meaning: - (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के कर्मप्रदीप्त (जठरेषु) अग्नि में (आविशन्) प्रवेश करते हुए (अद्रिभिः सुतः) वज्र से संस्कार किये हुए कर्मयोगी को (पवसे) पवित्र करते हैं (आ) और (पवित्रे) उसके पवित्र अन्तःकरण में (अभवः) निवास करें। (नृचक्षाः) तुम सर्वद्रष्टा हो (विचक्षणः) तथा सर्वज्ञ हो। (सोम) हे जगदुत्पादक ! आप (अङ्गिरोभ्यः) प्राणायामादि द्वारा (गोत्रं) कर्मयोगी के शरीर की रक्षा करें और उसके विघ्नों को (अपावृणोः) दूर करें ॥२३॥
Connotation: - “गौर्वाग्गृहीता अनेनेति गोत्रं शरीरम्” जो वाणी को ग्रहण करे, उसका नाम यहाँ गोत्र है। इस प्रकार यहाँ शरीर और प्राणों का वर्णन इस मन्त्र में किया गया है और सायणाचार्य ने गोत्र के अर्थ यहाँ मेघ के किये हैं और “अङ्गिरोभ्यः” के अर्थ कुछ नहीं किये है। यदि सायणाचार्य के अर्थों को उपयुक्त भी माना जाय, तो अर्थ ये बनते हैं कि हे सोमलते ! तुम अङ्गिरादि ऋषियों से मेघों को दूर करो। इस प्रकार सर्वथा असंबद्ध प्रलाप हो जाता है। वास्तव में यह प्रकरण कर्मयोगी का है और उसी को प्राणों की पुष्टि के द्वारा विघ्नों को दूर करना लिखा है ॥२३॥