Word-Meaning: - (सोम) हे परमात्मन् ! (त्वम्) तुमको हम (युज्याय-सख्याय) योग्य सख्य के लिए (वृणीमहे) हम वरण करें। तुम कैसे हो ? (सूरः) सर्वप्रेरक हो (इषः) सब ऐश्वर्य देनेवाले हो और (तोकस्य) पुत्र के (तनूनाम्) शरीर से उत्पन्न पुत्रादिकों के (साता) देनेवाले हो। उक्त गुणसंपन्न आपको (आवृणीमहे) हम भली-भाँति स्वीकार करते हैं ॥१८॥
Connotation: - इस मन्त्र में परमात्मा को सर्वोपरि मित्ररूप से कथन किया गया है। वस्तुतः मित्र शब्द के अर्थ स्नेह करने के हैं। वास्तव में परमात्मा के बराबर स्नेह करनेवाला कोई नहीं है। इसी भाव को “त्वं वा अहमस्मि भवो देवते अहं वा त्वमसि” इस उपनिषद् में भली-भाँति वर्णन किया है कि तू मैं और मैं तू हूँ। अर्थात् मैं आपके निष्पाप आदि गुणों को धारण करके शुद्ध आत्मा बनूँ ॥१८॥