Go To Mantra

पूर्वा॒मनु॑ प्र॒दिशं॑ याति॒ चेकि॑त॒त्सं र॒श्मिभि॑र्यतते दर्श॒तो रथो॒ दैव्यो॑ दर्श॒तो रथ॑: । अग्म॑न्नु॒क्थानि॒ पौंस्येन्द्रं॒ जैत्रा॑य हर्षयन् । वज्र॑श्च॒ यद्भव॑थो॒ अन॑पच्युता स॒मत्स्वन॑पच्युता ॥

English Transliteration

pūrvām anu pradiśaṁ yāti cekitat saṁ raśmibhir yatate darśato ratho daivyo darśato rathaḥ | agmann ukthāni pauṁsyendraṁ jaitrāya harṣayan | vajraś ca yad bhavatho anapacyutā samatsv anapacyutā ||

Pad Path

पूर्वा॑म् । अनु॑ । प्र॒ऽदिश॑म् । या॒ति॒ । चेकि॑तत् । सम् । र॒श्मिऽभिः॑ । य॒त॒ते॒ । द॒र्श॒तः । रथः॑ । दैव्यः॑ । द॒र्श॒तः । रथः॑ । अग्म॑न् । उ॒क्थानि॑ । पौंस्या॑ । इन्द्र॑म् । जैत्रा॑य । ह॒र्ष॒य॒न् । वज्रः॑ । च॒ । यत् । भव॑थः । अन॑पऽच्युता । स॒मत्ऽसु॑ । अन॑पऽच्युता ॥ ९.१११.३

Rigveda » Mandal:9» Sukta:111» Mantra:3 | Ashtak:7» Adhyay:5» Varga:24» Mantra:3 | Mandal:9» Anuvak:7» Mantra:3


Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (दर्शतः) दर्शनीय (रथः) शूरवीर का गमन (दैव्यः) दिव्यशक्तियुक्त (रश्मिभिः) उत्साहरूप किरणों द्वारा (सं, यतते) भली-भाँति यत्नशील होता है, (चेकितत्) युद्धविद्या के जाननेवाला योधा (पूर्वा, प्रदिशं) प्रशंसनीय गति को (याति) प्राप्त होता है, (पौंस्या, उक्थानि) पुंस्त्वसम्बन्धि स्तवन जब (अग्मन्) विजेता को प्राप्त होते हैं, तब (मैत्राय) विजेता उत्साहयुक्त होकर स्वामी को (हर्षयन्) प्रसन्न करता हुआ (इन्द्रं) अपने स्वामी को प्राप्त होता है, (यत्) क्योंकि (समत्सु) संग्रामों में (अनपच्युता, भवथः) न गिरे हुए स्वामी तथा सेवक सद्गति के भागी होते हैं (च) और (वज्रः) उनका शस्त्र भी अवर्जनीय होकर संसार में अव्याहत गति को प्राप्त होता है ॥३॥
Connotation: - इस मन्त्र में शूरवीर के तेज की दिव्य तेज से तुलना की गई है, कि जिस प्रकार द्युलोकवर्ती तेज अन्धकार को दूर करके सर्वत्र प्रकाश का संचार करता है, इसी प्रकार शूरवीर का तेज तमोरूप शुत्रओं का हनन करके अभ्युदयरूप ऐश्वर्य्य का संचार करता है ॥३॥ यह १११ वाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (दर्शतः) दर्शनीयं (रथः) शूरगमनं (दैव्यः) दैव्यशक्तियुक्तं (रश्मिभिः)उत्साहरूपकिरणैः  (सं, यतते)  सम्यग्यत्नशीलं भवति (चेकितत्) युद्धविद्याज्ञाता योधः (पूर्वां, प्रदिशं) प्रशस्यगतिं (याति) प्राप्नोति यदा (पौंस्या, उक्थानि)  पुंस्त्वसंबन्धिस्तवनानि  (अग्मन्)  विजेतारं प्राप्नुवन्ति (जैत्राय, हर्षयन्) तदा विजेता मोदयन् (इन्द्रं) स्वस्वामिनंप्राप्नोति  (यत्)  यतः  (समत्सु)  संग्रामेषु  (अनपच्युता, भवथः) अपतितौ  स्वामिसेवकौ  सद्गतिं  लभेते  (च)  अथ  च  (वज्रः) तच्छस्त्रमपि अवर्जनीयत्वात्समरेऽव्याहगतिं लभते ॥३॥ इत्येकादशोत्तरशततमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥