नाभा॒ नाभिं॑ न॒ आ द॑दे॒ चक्षु॑श्चि॒त्सूर्ये॒ सचा॑ । क॒वेरप॑त्य॒मा दु॑हे ॥
English Transliteration
nābhā nābhiṁ na ā dade cakṣuś cit sūrye sacā | kaver apatyam ā duhe ||
Pad Path
नाभा॑ । नाभि॑म् । नः॒ । आ । द॒दे॒ । चक्षुः॑ । चि॒त् । सूर्ये॑ । सचा॑ । क॒वेः । अप॑त्यम् । आ । दु॒हे॒ ॥ ९.१०.८
Rigveda » Mandal:9» Sukta:10» Mantra:8
| Ashtak:6» Adhyay:7» Varga:35» Mantra:3
| Mandal:9» Anuvak:1» Mantra:8
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ARYAMUNI
Word-Meaning: - (कवेः) उस सर्वज्ञ क्रान्तकर्मा परमात्मा के (अपत्यम्) ऐश्वर्य को (आ, दुहे) मैं प्राप्त करूँ और (नाभिम्) “नह्यति बध्नाति चराचरं जगदिति नाभिः” जो चराचर जगत् को नियम में रखता है, उसको (नाभा, नः) अपने हृदय में (आददे) ध्यानरूप से स्थित करूँ जो (सूर्ये, चित्) सूर्य में भी (चक्षुः, सचा) चक्षुरूप से सङ्गत है ॥८॥
Connotation: - उक्त कामधेनुरूप परमात्मा के ऐश्वर्य को वे लोग ढूढ़ सकते हैं, जो लोग उस परमात्मा को अपने हृदयरूपी कमल में साक्षीरूप से स्थिर समझ कर सत्कर्मी बनते हैं और वह परमात्मा अपनी प्रकाशरूप शक्ति से सूर्य का भी प्रकाशक है। इस मन्त्र में परमात्मा इस भाव का बोधन करते हैं कि जिज्ञासु पुरुषों ! तुम उस प्रकाश से अपने हृदय को प्रकाशित करके संसार के पदार्थों को देखो, जो सर्वप्रकाशक है और जिससे यह भूतवर्ग अपनी उत्पत्ति और स्थिति का लाभ करता है, जैसा कि ‘नाभ्याऽआसीदन्तरिक्षम्’ “चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत” यजुः १।१२ इत्यादि मन्त्रों में वर्णन किया है कि उसी के नाभिरूप सामर्थ्य से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ और उसी के चक्षुरूप सामर्थ्य से सूर्य उत्पन्न हुआ। चक्षु के अर्थ यहाँ ‘चष्टे पश्यत्यनेनेति चक्षुः’ अर्थात् अपने सात्त्विक सामर्थ्य से सूर्य को उत्पन्न किया, जैसा कि अन्यत्र भी कहा है कि “सत्वात्संजायते ज्ञानम्”। बहुत क्या, “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्म” अर्थात् उसी से यह सब संसारवर्ग आविर्भाव को प्राप्त होता है और उससे लाभ करके स्थिर रहता है और अन्त में परमाणुरूप हो कर उसी में लय हो जाता है। उसी के जानने की इच्छा करनी चाहिये, वही सर्वोपरि ब्रह्म है। “बृंहते वर्धत इति ब्रह्म” जो सदैव वृद्धि को प्राप्त है अर्थात् जिससे कोई बड़ा नहीं, उसका नाम यहाँ ब्रह्म है ॥८॥
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ARYAMUNI
Word-Meaning: - (कवेः) तस्य सर्वज्ञस्य परमात्मनः (अपत्यम्) ऐश्वर्यं (आ, दुहे) प्राप्नुयामहम्, तथा च (नाभिम्) तं चराचरजगतो नियन्तारं (नाभा, नः) स्वहृदये (आददे) ध्यानद्वारा वासयानि यः (सूर्ये, चित्) सूर्येऽपि (चक्षुः, सचा) चक्षूरूपेण सङ्गतोऽस्ति ॥८॥