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यद॒प्सु यद्वन॒स्पतौ॒ यदोष॑धीषु पुरुदंससा कृ॒तम् । तेन॑ माविष्टमश्विना ॥

English Transliteration

yad apsu yad vanaspatau yad oṣadhīṣu purudaṁsasā kṛtam | tena māviṣṭam aśvinā ||

Pad Path

यत् । अ॒प्ऽसु । यत् । व॒नस्पतौ॑ । यत् । ओष॑धीषु । पु॒रु॒ऽदं॒स॒सा॒ । कृ॒तम् । तेन॑ । मा॒ । अ॒वि॒ष्ट॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥ ८.९.५

Rigveda » Mandal:8» Sukta:9» Mantra:5 | Ashtak:5» Adhyay:8» Varga:30» Mantra:5 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:5


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SHIV SHANKAR SHARMA

राजकर्त्तव्य का उपदेश देते हैं।

Word-Meaning: - (पुरुदंससा) हे बहुकर्मा (अश्विना) राजन् और अमात्य ! आप (अप्सु) जलों की वृद्धि के निमित्त (यत्+कृतम्) जो कर्म करते हैं (वनस्पतौ) विविध वृक्षों के वृद्ध्यर्थ (यत्) जो कर्म करते हैं (ओषधीषु) व्रीहि आदिकों के निमित्त (यत्) जो कर्म करते हैं (तेन) उन सबकी सहायता से (माम्) मुझ प्रजा की (अविष्टम्) रक्षा करें ॥५॥
Connotation: - राजा जलों, वनस्पतियों, यवादिकों की वृद्धि के लिये सदा प्रयत्न करे ॥५॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (पुरुदंससा) हे अनेक कर्मोंवाले ! (यत्, अप्सु) जो पौरुष आपने जलों में (यद्, वनस्पतौ) जो वनस्पतियों में (यत्, ओषधीषु) और जो रसाधार अन्नों में (कृतम्) प्रकट किया है, (अश्विना) हे बलवाले ! (तेन) उस पौरुष से (मा) मुझे (अविष्टम्) सुरक्षित करें ॥५॥
Connotation: - हे पौरुषसम्पन्न सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! आपने जो पौरुष जलों तथा वनस्पतियों की विद्या जानने में किया है और उनके द्वारा आप अन्नों के संग्रह में सर्व प्रकार कुशल हैं, कृपा करके आप अपने उपदेश द्वारा हमें भी उक्त विद्याओं से सम्पन्न करें, जिससे हम अन्नवान् और अन्न के भोक्ता हों ॥५॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

राजकर्त्तव्यमाह।

Word-Meaning: - हे पुरुदंससा=पुरुदंससौ=बहुकर्माणौ। अश्विना=अश्विनौ राजामात्यौ। अप्सु=जलेषु निमित्तेषु। यत्कर्म। युवां कृतम्=कुरुतम्। तथा। वनस्पतौ=वनानां पतिर्वनस्पतिः तस्मिन् निमित्ते। अत्र जातावेकवचनम्। वृक्षेषु निमित्तेषु यत्कर्म कुरुतम्। एवमेव। ओषधीषु=ओषः पाक आसु धीयत इत्योषधयो व्रीह्यादयः। कर्मण्यधिकरणे चेति दधातेरधिकरणे किप्रत्ययः। दासीमारादिषु पठितत्वात् पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम्। ओषधेश्च विभक्तावप्रथमायामिति दीर्घः। व्रीह्यादिष्वोषधीषु निमित्तेषु च। यत्कर्म कुरुतम्। तेन कर्मणा मामपि प्रजाम्। अविष्टम्=रक्षतम् ॥५॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (पुरुदंससा) हे बहुकर्माणौ ! (यत्, अप्सु) यत् पौरुषं जलेषु (यत्, वनस्पतौ) यच्च वनस्पतिषु (यत्, ओषधीषु) यत् रसाधारेष्वन्नेषु (कृतम्) पौरुषं प्रकटीकृतम् (अश्विना) हे बलिनौ ! (तेन) तेन पौरुषेण (मा) माम् (अविष्टम्) रक्षतम् ॥५॥