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वि वृ॒त्रं प॑र्व॒शो य॑यु॒र्वि पर्व॑ताँ अरा॒जिन॑: । च॒क्रा॒णा वृष्णि॒ पौंस्य॑म् ॥

English Transliteration

vi vṛtram parvaśo yayur vi parvatām̐ arājinaḥ | cakrāṇā vṛṣṇi pauṁsyam ||

Pad Path

वि । वृ॒त्रम् । प॒र्व॒ऽशः । य॒युः॒ । वि । पर्व॑तान् । अ॒रा॒जिनः॑ । च॒क्रा॒णाः । वृष्णि॑ । पौं॒स्य॑म् ॥ ८.७.२३

Rigveda » Mandal:8» Sukta:7» Mantra:23 | Ashtak:5» Adhyay:8» Varga:22» Mantra:3 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:23


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SHIV SHANKAR SHARMA

वायु की प्रकृति दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - (अराजिनः) किसी राजा से अधिष्ठित नहीं अर्थात् स्वतन्त्र और (वृष्णि) वीर्ययुक्त (पौंस्यम्) महाबल को (चक्राणाः) करते हुए वे मरुद्गण (वृत्रम्) जगत् के निखिल विघ्नों को (पर्वशः) खण्ड-२ करके (वि+ययुः) फेंक देते हैं और (पर्वतान्) मेघों को भी इधर-उधर छितिर-वितिर कर देते हैं ॥२३॥
Connotation: - अग्नि, सूर्य्य, मरुत् आदि पदार्थों को जगत् के कल्याण के लिये ईश्वर ने स्थापित किया है। वायु के अनेक कार्य हैं, मुख्य कार्य ये हैं कि जो रोग कीट या अन्यान्य रोगोत्पादक अंश कहीं जम जाते हैं, तो वायु उनको उड़ाकर इधर-उधर छींट देते हैं, जिनसे उनका बल सर्वथा नष्ट हो जाता है। और मेघों को चारों दिशाओं में ले जाकर बरसाते हैं और प्राणियों को जीवित रखते हैं। अतः इनके गुणों का निरूपण वेदों में आता है ॥२३॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (अराजिनः) स्वतन्त्र (वृष्णि, पौंस्यम्, चक्राणाः) तीक्ष्ण पौरुष करते हुए वे लोग (वृत्रम्) अपने मार्गरोधक शत्रु को (पर्वशः) पर्व-पर्व में (विययुः) विभिन्न कर देते हैं (पर्वतान्) और मार्गरोधक पर्वतों को भी (वि) तोड़-फोड़ डालते हैं ॥२३॥
Connotation: - वे अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग को जाननेवाले विद्वान् पुरुष अपने परिश्रम द्वारा मार्गरोधक शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके भगा देते हैं और वे जिन पर्वतों का आश्रय लेते हैं, उनको भी अपनी विद्याद्वारा तोड़-फोड़ कर शत्रुओं का निरोध करते हैं ॥२३॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

वायुप्रकृतिं दर्शयति।

Word-Meaning: - अराजिनः=न केनचिदपि राज्ञा अधिष्ठिताः स्वतन्त्राः। पुनः। वृष्णि=वीर्य्यवत्। पौंस्यम्=बलम्। चक्राणाः=कुर्वन्तो मरुतः। वृत्रम्=जगतां विघ्नम्। पर्वशः=पर्वणि पर्वणि। विययुः=विशिष्टं वधमगमयन्। पुनः। पर्वतान्=मेघांश्च वियुक्तवन्तः ॥२३॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (अराजिनः) स्वतन्त्राः (वृष्णि, पौंस्यं, चक्राणाः) तीक्ष्णपौरुषं कुर्वाणास्ते (वृत्रम्) स्ववारकम् (पर्वशः) प्रतिपर्व (विययुः) खण्डयन्ति (पर्वतान्) स्वमार्गाय गिरींश्च (वि) स्फोटयन्ति ॥२३॥