Word-Meaning: - यद्यपि ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं, तथापि उसका अनुभव यह जीव करता है। वेद के अनुसार वह हमारा पिता और बन्धु है। वह रक्षक है, वह हमारी प्रार्थना सुनता और उसका फल देता है, इत्यादि विचारों के साथ वेद विद्यमान हैं। इस अवस्था में यह मन्त्र वक्ष्यमाण प्रकार का विचार उपस्थित करता है। अध्यात्मार्थ−(ब्रध्नस्य) सूर्य्यवत् प्रकाशक शिरसम्बन्धी (यत्+विष्टपम्) जो विस्तृत और वितप्त (गृहम्) गृह है, वहाँ मैं उपासक और (इन्द्रः+च) परमात्मा दोनों (उद्+गन्वहि) जावें और वहाँ (मध्वः+पीत्वा) मुक्ति का सुख भोगते हुए (त्रिः+सप्त) एकविंशति विवेकयुक्त (सख्युः+पदे) अपने मित्र के पद पर (सचेवहि) संयुक्त होवें ॥७॥
Connotation: - त्रिः+सप्त=२१−भाष्यकार सायण आदि समझते हैं कि देवताओं के स्थानों में इक्कीसवाँ उत्तम सूर्य्य का स्थान है। वही परम पद भी कहलाता है। किन्तु यह व्याख्या वेद की नहीं हो सकती। क्योंकि देवों के सब स्थान मिलकर (२१) इक्कीस ही हैं, इसका भी कोई निश्चय नहीं। अतः यह वर्णन अध्यात्म है। इस शिर में दो नयन, दो कर्ण, दो नासिकाएँ और एक रसना, ये सातों अपने-अपने विषयों के विचारकर्ता हैं। उत्तम, मध्यम और अधम भेद से इनके तीन प्रकार के विचार हैं, अतः ७*३=२१ प्रकार के अनुभव या विचार इस शिर में सदा होते रहते हैं, अतः यही शिर एकविंशति विचारों से युक्त है। सखा=परमात्मा का सखा जीव है। उसका मुख्य स्थान शिर ही है। जैसे लोक में मित्र को बुलाकर लोग सत्कार करते हैं, वैसे ही यह उपासक जीवात्मा परमात्मा को अपने-अपने स्थान में बुलाता है और उसे मधु समर्पित करता है।