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उदा॑नट् ककु॒हो दिव॒मुष्ट्रा॑ञ्चतु॒र्युजो॒ दद॑त् । श्रव॑सा॒ याद्वं॒ जन॑म् ॥

English Transliteration

ud ānaṭ kakuho divam uṣṭrāñ caturyujo dadat | śravasā yādvaṁ janam ||

Pad Path

उत् । आ॒न॒ट् । क॒कु॒हः । दिव॑म् । उष्ट्रा॑न् । च॒तुः॒ऽयुजः॑ । दद॑त् । श्रव॑सा । याद्व॑म् । जन॑म् ॥ ८.६.४८

Rigveda » Mandal:8» Sukta:6» Mantra:48 | Ashtak:5» Adhyay:8» Varga:17» Mantra:8 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:48


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SHIV SHANKAR SHARMA

उसकी व्यापकता और उदारता दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - वह परमदेव (ककुहः) परम उच्च और परम उदार है, पुनः वह (दिवम्) द्युलोक से लेकर पृथिवी तक अर्थात् सर्वत्र (उदानट्) व्याप्त है। पुनः (याद्वम्) उपासक (जनम्) जन को (श्रवसा) कीर्ति धन आदि सम्पत्ति से विभूषित करके (उष्ट्रान्) अभिलषित (चतुर्युजः) चार योगों को (ददत्) देता हुआ वर्तमान है। चार योग ये हैं १−शारीरिक सुख। २−पुत्र, पौत्र, धन सम्पत्त्यादि सुख। ३−लोक में विद्वत्ता, यशस्विता आदि गुणों का प्रकाश और ४−अन्त में मुक्तिसुख ॥४८॥
Connotation: - जो सर्वज्ञ, परमधनाढ्य और सर्ववित् है, वही सर्व वस्तु दे सकता है, अतः हे मनुष्यों ! सर्वगुणसम्पन्न ईश्वर को भजो, वह तुमको सब देगा ॥४८॥
Footnote: यह अष्टम मण्डल छठा सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (ककुहः) अभ्युदय से प्रवृद्ध उपासक (चतुर्युजः, उष्ट्रान्) स्वर्णभारों से युक्त चार उष्ट्र और (याद्वम्, जनम्) मनुष्यों के समुदाय को (ददत्) देता हुआ (श्रवसा) कीर्ति से (दिवम्) द्युलोक तक (उदानट्) व्याप्त होता है ॥४८॥
Connotation: - अभ्युदयप्रवृद्ध=ऐश्वर्य्यसम्पन्न उपासक विविध विद्याओं से युक्त वेदों के ज्ञाता पुरुष को सुवर्ण से लदे हुए चार ऊँट तथा उनकी रक्षार्थ जनसमुदाय देता हुआ अतुल कीर्ति को प्राप्त होता और दूसरों को वेदाध्ययन के लिये उत्साहित करता है ॥४८॥ यह छठा सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

तस्य व्यापकतामुदारताञ्च दर्शयति।

Word-Meaning: - स परमदेवः। ककुहः=परमोच्छ्रितः परमोदारोऽस्ति। पुनः। दिवम्=द्युलोकमभिव्याप्य। उदानट्=उदाश्नुते व्याप्नोति। पुनः। याद्वम्=उपासकं जनम्। श्रवसा=कीर्त्या। योजयित्वा। उष्ट्रान्=अभिलषितान्। वश कान्तौ अस्मादुष्ट्रशब्दस्य सिद्धिः। चतुर्युजः=चतुर्योगान्। ददत्=प्रयच्छन् वर्तते ॥४८॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (ककुहः) अभ्युदयेन प्रवृद्धो यमुपासकः (चतुर्युजः, उष्ट्रान्) चतुर्भिः स्वर्णभारैर्युक्तान् उष्ट्रान् (याद्वम्, जनम्) मनुष्यसमूहं च (ददत्) प्रयच्छन् (श्रवसा) कीर्त्या (दिवं) द्युलोकम् (उदानट्) व्याप्नोति ॥४८॥ इति षष्ठं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥