Go To Mantra

अ॒भि कण्वा॑ अनूष॒तापो॒ न प्र॒वता॑ य॒तीः । इन्द्रं॒ वन॑न्वती म॒तिः ॥

English Transliteration

abhi kaṇvā anūṣatāpo na pravatā yatīḥ | indraṁ vananvatī matiḥ ||

Pad Path

अ॒भि । कण्वाः॑ । अ॒नू॒ष॒त॒ । आपः॑ । न । प्र॒ऽवता॑ । य॒तीः । इन्द्र॑म् । वन॑न्ऽवती । म॒तिः ॥ ८.६.३४

Rigveda » Mandal:8» Sukta:6» Mantra:34 | Ashtak:5» Adhyay:8» Varga:15» Mantra:4 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:34


Reads times

SHIV SHANKAR SHARMA

विद्वानों का कर्त्तव्य कहते हैं।

Word-Meaning: - विद्वद्गण क्यों परमात्मा की स्तुति करते हैं, इस शङ्का पर कहा जाता है कि−(मतिः) विद्वानों की मननशक्ति स्वभाव से ही (इन्द्रम्) परमात्मा की (वनन्वती) कामना करनेवाली होती है, अतः (कण्वाः) विद्वान् (अभि) सर्व प्रकार से (अनूषत) ईश्वर की स्तुति किया करते हैं। यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(प्रवता) निम्न मार्ग से (यतीः) चलती हुई (आपः+न) जैसे नदियाँ स्वभावतः समुद्र में जाती हैं, तद्वत् विद्वानों की बुद्धि परमात्मा की ओर ही जाती है ॥३४॥
Connotation: - जैसे विद्वान् आचरण करते हैं, वैसे ही इतर जन भी करें, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥३४॥
Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (कण्वाः) जब विद्वान् लोग (अभ्यनूषत) सम्यक् स्तुति करते हैं, तब (प्रवता, यतीः, आपः, न) निम्न स्थल को जाते हुए जलों के समान (मतिः) स्तुति स्वयम् (इन्द्रम्, वनन्वती) परमात्मा की ओर जाकर उसका सेवन करती है ॥३४॥
Connotation: - जब विद्वान् लोग परमात्मा की सम्यक् प्रकार से स्तुति करते हैं, तब वह स्तुति निम्न स्थान में स्वाभाविक जलप्रवाह की भाँति परमात्मा को प्राप्त होती है और वह स्तुतिकर्त्ता को फलप्रद होती है। यहाँ निदिध्यासन के अभिप्राय से “वहना” लिखा है, वास्तव में स्तुति में क्रियारूप गति नहीं ॥३४॥
Reads times

SHIV SHANKAR SHARMA

विद्वत्कर्तव्यमाह।

Word-Meaning: - कुतो विद्वांसः परमात्मनः स्तुतिं कुर्वन्तीत्यपेक्षायां कारणमाह−यतः प्रकृत्यैव। मतिः=विदुषां मननशक्तिः। इन्द्रम्=परमात्मानमेव। वनन्वती=कामयमाना वर्तते। अतः कण्वाः=विद्वांसः=स्तुतिपाठकाः। अभि=अभितः सर्वतो भावेन। अनूषत=स्तुवन्ति। नु स्तुतौ। कुटादिः। अत्र दृष्टान्तः−प्रवता=प्रवणेन मार्गेण। यतीर्गच्छन्त्यः। आपो न=यथा जलानि प्रकृत्यैव समुद्रं गच्छन्ति। तद्वन्मतिरिन्द्रं गच्छतीत्यर्थः ॥३४॥
Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (कण्वाः) यदा विद्वांसः (अभ्यनूषत) अभितः स्तुवन्ति (प्रवता, यतीः, आपः, न) तदा प्रवणेन मार्गेण गच्छन्त्यः आपः इव (मतिः) स्तुतिः (इन्द्रम्) परमात्मानम् (वनन्वती) संभजते ॥३४॥