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अ॒हमिद्धि पि॒तुष्परि॑ मे॒धामृ॒तस्य॑ ज॒ग्रभ॑ । अ॒हं सूर्य॑ इवाजनि ॥

English Transliteration

aham id dhi pituṣ pari medhām ṛtasya jagrabha | ahaṁ sūrya ivājani ||

Pad Path

अ॒हम् । इत् । हि । पि॒तुः । परि॑ । मे॒धाम् । ऋ॒तस्य॑ । ज॒ग्रभ॑ । अ॒हम् । सूर्यः॑ऽइव । अ॒ज॒नि॒ ॥ ८.६.१०

Rigveda » Mandal:8» Sukta:6» Mantra:10 | Ashtak:5» Adhyay:8» Varga:10» Mantra:5 | Mandal:8» Anuvak:2» Mantra:10


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SHIV SHANKAR SHARMA

इससे ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं।

Word-Meaning: - (अहम्) मैंने (पितुः+परि) सबके पालक पिता परमात्मा से (ऋतस्य) सत्य और सत्य नियम की (मेधाम्) परमविद्या का (इत्) निश्चितरूप से (परि+जग्रभ) ग्रहण किया है, तदर्थ परमात्मा को सतत कृतज्ञता प्रकाशित करता हूँ। जिस हेतु ईश्वरकृपा से मैं मेधावान् हूँ, अतः इस जगत् में (अहम्) मैं (सूर्यः+इव) सूर्य के समान (अजनि) प्रकाशमान हुआ हूँ ॥१०॥
Connotation: - सर्वकार्य में ईश्वर की कृपा प्रार्थनीय है। उसी के अनुग्रह से विद्वान् सत्य के नियमों को जानते हैं, सो जो कोई वैसी विद्या से और सुमति से भूषित होता है, वही सूर्यवत् अज्ञानान्धकार को विध्वस्त करके ज्ञानज्योति फैलाता है ॥१०॥
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ARYAMUNI

अब उपासक की उक्ति कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (पितुः) पालक (ऋतस्य) सद्रूप परमात्मा के (मेधा) ज्ञान को (अहम्, इत्, हि) मैंने ही (परिजग्रभ) लब्ध किया, तिससे (अहम्) मैं उपासक (सूर्यः, इव, अजनि) सूर्य्य के समान हो गया ॥१०॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपासक की ओर से यह कथन है कि मैं सत्यस्वरूप, सबके पालक परमात्मा के ज्ञान को उपलब्ध कर सूर्य्य के समान तेजस्वी हो गया। जो अन्य भी उसके ज्ञान की प्राप्ति तथा आज्ञा पालन करते हैं, वे भी तेजस्वी तथा ओजस्वी जीवनवाले होकर आनन्दोपभोग करते हैं ॥१०॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

ईश्वरं प्रति कृतज्ञताऽनया प्रकाश्यते।

Word-Meaning: - अहमुपासकः। पितुः=परिपालकपरमेश्वरात्। परि=पञ्चम्यर्थानुवादी। ऋतस्य=सत्यनियमस्य। मेधाम्=परमविद्याम्। इत्=निश्चयेन। परिजग्रभ=परितो गृहीतवानस्मि। तदर्थं परमात्मने सततं कृतज्ञतां प्रकाशयामि। यतोऽहं मेधावान्। अतोऽहम्। सूर्य इव=जगति प्रकाशमानः सन्। अजनि=अजनिषं जातोऽस्मि। स यः खलु परमात्माज्ञां पालयिष्यति सोऽहमिव सुमतिं सुविद्याञ्च तस्मात् प्राप्स्यति ॥१०॥
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ARYAMUNI

अथोपासकस्योक्तिविशेषः कथ्यते।

Word-Meaning: - (पितुः) पालकस्य (ऋतस्य) सद्रूपस्य (मेधाम्) ज्ञानम् (अहम्, इत्, हि) अहमेव (परिजग्रभ) परितः लब्धवान् तेन (अहम्) अहमुपासकः (सूर्यः, इव, अजनि) सूर्य इव सम्पन्नः ॥१०॥