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उ॒त त्वा॒ नम॑सा व॒यं होत॒र्वरे॑ण्यक्रतो । अग्ने॑ स॒मिद्भि॑रीमहे ॥

English Transliteration

uta tvā namasā vayaṁ hotar vareṇyakrato | agne samidbhir īmahe ||

Pad Path

उ॒त । त्वा॒ । नम॑सा । व॒यम् । होतः॑ । वरे॑ण्यक्रतो॒ इति॒ वरे॑ण्यऽक्रतो । अग्ने॑ । स॒मित्ऽभिः॑ । ई॒म॒हे॒ ॥ ८.४३.१२

Rigveda » Mandal:8» Sukta:43» Mantra:12 | Ashtak:6» Adhyay:3» Varga:31» Mantra:2 | Mandal:8» Anuvak:6» Mantra:12


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SHIV SHANKAR SHARMA

फिर उसी अर्थ को कहते हैं।

Word-Meaning: - (अग्ने) हे अग्ने ! (तव) तेरा (सधिः) स्थान=गृह (अप्सु) जलों में है (सः) वह तू (ओषधीः+अनु) समस्त वनस्पतियों के मध्य (रुध्यसे) प्रविष्ट है। (पुनः) पुनः (गर्भे) उन ओषधियों और जलों के गर्भ में (सन्) रहता हुआ (जायसे) नूतन होकर उत्पन्न होता है ॥९॥
Connotation: - यह ऋचा भौतिक और ईश्वर दोनों में घट सकती है। ईश्वर भी जलों और ओषधियों में व्यापक है और इनके ही द्वारा प्रकट भी होता है। भौतिक अग्नि के इस गुण के वर्णन से वेद का तात्पर्य्य यह है कि परमात्मा का बनाया हुआ यह अग्नि कैसा विलक्षण है। मेघ और समुद्र में भी रहता, वहाँ वह बुझता नहीं। विद्युत् जल से ही उत्पन्न होती, परन्तु जल इसको शमित नहीं कर सकता, यह कैसा आश्चर्य्य है ॥९॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

पुनस्तमेवार्थमाह।

Word-Meaning: - हे अग्ने ! अप्सु=जलेषु। तव। सधिः=स्थानं वर्तते। स त्वम्। ओषधीः अनुरुध्यसे=ओषधिषु वससीत्यर्थः। पुनः। तासामेवोषधीनाम्। गर्भे। सन्भवन्। जायसे=नवीनो भवसि ॥९॥