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कण्वा॑ इव॒ भृग॑व॒: सूर्या॑ इव॒ विश्व॒मिद्धी॒तमा॑नशुः । इन्द्रं॒ स्तोमे॑भिर्म॒हय॑न्त आ॒यव॑: प्रि॒यमे॑धासो अस्वरन् ॥

English Transliteration

kaṇvā iva bhṛgavaḥ sūryā iva viśvam id dhītam ānaśuḥ | indraṁ stomebhir mahayanta āyavaḥ priyamedhāso asvaran ||

Pad Path

कण्वाः॑ऽइव । भृग॑वः । सूर्या॑ऽइव । विश्व॑म् । इत् । धी॒तन् । आ॒न॒शुः॒ । इन्द्र॑म् । स्तोमे॑भिः । म॒हय॑न्तः । आ॒यवः॑ । प्रि॒यऽमे॑धासः । अ॒स्व॒र॒न् ॥ ८.३.१६

Rigveda » Mandal:8» Sukta:3» Mantra:16 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:28» Mantra:1 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:16


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SHIV SHANKAR SHARMA

सब विद्वान् इन्द्र की ही स्तुति करते हैं, यह शिक्षा इससे देते हैं।

Word-Meaning: - (कण्वाः१+इव) जैसे स्तुतिनिर्माता ग्रन्थप्रणयनकर्ता जन सदा ईश्वर को और उसकी विभूतियों को विचारते हुए (विश्वम्+इत्) सम्पूर्ण में व्यापक और (धीतम्) सबसे ध्यात परमात्मा में (आनशुः) लीन रहते हैं। वैसे ही (भृगवः२) तपस्वीजन भी तपश्चर्य्या द्वारा उसी में लीन रहते हैं। इसमें दृष्टान्त देते हैं। (सूर्याः+इव) जैसे सूर्य विश्व में निज किरणों से व्याप्त होते हैं, वैसे ही ग्रन्थनिर्माता और तपस्वी अपने-२ विचार से परमात्मा में व्याप्त रहते हैं। इसके अतिरिक्त (प्रियमेधा३सः) प्रियमेध=प्रिययज्ञ=यज्ञ करनेवाले कर्मरत (आयवः) मनुष्य (स्तोमैः) अन्य विरचित स्तोत्रों से (इन्द्रम्) ईश्वर की (महयन्तः) स्तुति करते हुए (अस्वरन्) उच्चस्वर से उसको गाते हैं और उस गान से ईश्वर की महिमा को पाते हैं ॥१६॥
Connotation: - ईश्वरग्रन्थप्रणेता तपस्वी और कर्मीजन इस लोक में सुखी रहते हैं और परलोक में उसको पाते हैं। हे मनुष्यो ! तुम भी तत्समान बनो ॥१६॥
Footnote: १−कण्व=गति और शब्द दो अर्थों में कण धातु का पाठ भ्वादिगण में है। जो ईश्वर के सम्बन्ध में ग्रन्थ लिखता रहता है, वह कण्व कहलाता है। २−भृगु=जो तपश्चर्या में अपने को भूँज देता है, वह भृगु=तपस्वी। ३−प्रियमेध=जो यज्ञों=शुभकर्मों को प्रिय समझते हैं। इस ऋचा में तीन प्रकार के मनुष्यों की चर्चा है। १ ग्रन्थनिर्माता, २ तपस्वी और ३ कार्मिक। ये तीनों ईश्वरपरायण रहते हैं और प्रशंसनीय हैं ॥१६॥
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ARYAMUNI

अब कर्मयोगी के प्रति राष्ट्ररक्षा का उपाय कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (कण्वा इव) विद्वानों के समान (भृगवः) शूर भी (सूर्या इव) सूर्यकिरणों के समान (धीतं, विश्वं, इत्) जाने हुए संसार में (आनशुः) व्याप्त हो गये (आयवः) प्रजाजन (प्रियमेधासः) अनुकूल बुद्धिवाले (इन्द्रं) कर्मयोगी को (स्तोमेभिः) यज्ञों द्वारा (महयन्तः) अर्चित करते हुए (अस्वरन्) कीर्तिगान करते हैं ॥१६॥
Connotation: - कर्मयोगी की सम्पूर्ण राष्ट्रभूमि में विद्वान्, उपदेशक तथा शूरवीर व्याप्त रहते हैं, जिससे उसका राष्ट्र ज्ञान से पूर्ण होकर सुरक्षित बना रहता और अन्न-धन से भरपूर होकर सर्वदा उसकी प्रशंसा करता है ॥१६॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

सर्वे मेधाविन इन्द्रमेव स्तुवन्तीत्यनया शिक्षते।

Word-Meaning: - कण्वाः=कणन्ति स्तुवन्ति स्तुतिं रचयन्ति ये ते कण्वाः स्तुतिपाठकाः स्तुतिनिर्मातारश्च। कणतिः शब्दार्थः। यद्वा। कणन्ति परमात्मानं लक्षीकृत्य गच्छन्ति व्यवहारेषु ये ते कण्वाः। कणतिर्गतिकर्मा। ईश्वरोपासका ग्रन्थप्रणेतारः। भृगवः=भृज्जन्ति तपश्चर्य्यादिषु ये परिपक्वप्रज्ञा भवन्ति ते भृगवस्तपस्विनः। अथर्गर्थः−कण्वा इव=ईश्वरीय- ग्रन्थप्रणेतार ईशं तद्विभूतीश्च विचारयन्तो यथा। विश्वम्+इत्=विश्वव्याप्तमेव। धीतं=सर्वैर्ध्यातं परमात्मानम्। आनशुः=अश्नुवन्ति सर्वदा तस्मिन् लीनास्तिष्ठन्ति। तथा। भृगवस्तपस्विनोऽपि तस्मिन् एव ब्रह्मणि लीना भवन्ति। अत्र दृष्टान्तः। सूर्य्याः इव=यथा स्वकिरणैः सूर्याः सर्वत्र व्याप्नुवन्ति, तथैव तेऽपि मनसा परमात्मानं व्याप्नुवन्ति। अन्ये प्रियमेधासः=प्रियमेधाः प्रियकर्माणः कर्मिणः। आयवः=मनुष्याः। स्तोमैः=स्तोत्रैः। इन्द्रम्। महयन्तः=पूजयन्तः। अस्वरन्=उच्चस्वरैः स्वरन्ति गायन्ति तेनापि तं प्राप्नुवन्ति ॥१६॥
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ARYAMUNI

अथ कर्मयोगिनं प्रति राष्ट्ररक्षोपायः कथ्यते।

Word-Meaning: - (कण्वा इव) यथा कण्वास्तथैव (भृगवः) शूराः (सूर्या इव) सूर्यकिरणा इव (धीतं, विश्वं, इत्) ज्ञातं विश्वमेव (आनशुः) व्याप्तवन्तः (आयवः) प्रजाजनाः (इन्द्रं) कर्मयोगिनं (स्तोमेभिः) यज्ञैः (महयन्तः) पूजयन्तः (प्रियमेधासः) प्रियबुद्धयस्ते (अस्वरन्) कीर्तयन्ति ॥१६॥