Word-Meaning: - (ऋतायवः) हे यज्ञ करने की इच्छावाले ! (ऋतावानम्) यज्ञसम्बन्धी (यज्ञस्य, साधनम्) रक्षक होने से यज्ञ के साधक (एनम्) इस शूर को (नमसः, पदे) स्तुति करनेवाले स्थान में (गिरा) स्पष्टवाणी से (उपो, जुजुषुः) उपसेवन करो ॥९॥
Connotation: - इस मन्त्र का भाव यह है कि याज्ञिक को उचित है कि अपने यज्ञ को निर्विघ्न पूर्ण किया चाहे तो सबसे प्रथम युद्धकुशल शुरवीर की सत्कारयुक्त वाणी से प्रार्थना करके उसका सम्यक् सेवन करे, जिससे विघातक लोग विघ्न न कर सकें, मन्त्र में “जुजुषुः” क्रिया का कर्ता “ऋतायवः” यह सम्बोधन पद आया है, इससे भूतकालिक “लकार” का भी विध्यर्थ में व्यत्यय कर लेना आवश्यक है और “ऋतायवः” यह पद सम्बोधन है। इस ज्ञान का करानेवाला इसका सर्वनिघात स्वर है, क्योंकि किसी पद से परे सम्बोधन पद को “आमन्त्रितस्य च” इस पाणिनिसूत्र से सर्वनिघात हो जाता है ॥९॥