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उदु॑ तिष्ठ स्वध्वर॒ स्तवा॑नो दे॒व्या कृ॒पा । अ॒भि॒ख्या भा॒सा बृ॑ह॒ता शु॑शु॒क्वनि॑: ॥

English Transliteration

ud u tiṣṭha svadhvara stavāno devyā kṛpā | abhikhyā bhāsā bṛhatā śuśukvaniḥ ||

Pad Path

उत् । ऊँ॒ इति॑ । ति॒ष्ठ॒ । सु॒ऽअ॒ध्व॒र॒ । स्तवा॑नः । दे॒व्या । कृ॒पा । अ॒भि॒ऽख्या । भा॒सा । बृ॒ह॒ता । शु॒शु॒क्वनिः॑ ॥ ८.२३.५

Rigveda » Mandal:8» Sukta:23» Mantra:5 | Ashtak:6» Adhyay:2» Varga:9» Mantra:5 | Mandal:8» Anuvak:4» Mantra:5


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SHIV SHANKAR SHARMA

उसकी स्तुति दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - (स्वध्वर) हे शोभनयज्ञेश ! आप (उद्+उ+तिष्ठ) हम लोगों के हृदय में उठो और हम लोगों को उठाओ। (स्तवानः) जिस तुझकी हम लोग सदा स्तुति करते हैं, (देव्या+कृपा) जो तू दैवी कृपा से युक्त है और (अभिख्या) सर्वत्र प्रसिद्ध (भासा) तेज से वेष्टित है (बृहता) महान् तेज से (शुशुक्वनिः) जो तू प्रकाशित हो रहा है ॥५॥
Connotation: - स्वध्वर=जिसके लिये अच्छे-२ यज्ञ किये जाएँ, वह स्वध्वर। यद्यपि परमात्मा सदा स्वयं जागृति है, तथापि सेवक अपने लिये ईश्वर को उठाता है अर्थात् अपनी ओर करता है। उसको हृदय में देखता हुआ उपासक सदा कर्म में जागृत रहे ॥५॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (स्वध्वर) हे सुन्दर हिंसारहित यज्ञकर्ता ! (स्तवानः) याज्ञिकों द्वारा स्तुति किये गये आप (देव्या) दिव्य (कृपा) समर्थ (अभिख्या) प्रसिद्ध (बृहता) महती (भासा) शस्त्रादिकों की दीप्ति से (शुशुक्वनिः) प्रज्वलित के समान (उत्तिष्ठ, उ) यज्ञसदन में जाने के लिये अवश्य उठें ॥५॥
Connotation: - हे कर्मयोगिन् ! आप सब प्रकार से समर्थ और अस्त्र-शस्त्रादिकों की दीप्ति से देदीप्यमान होने के कारण हमारे यज्ञसदन को अवश्य प्राप्त हों। तात्पर्य्य यह है कि हम लोग ज्ञानयज्ञ, तपोयज्ञ तथा ब्रह्मयज्ञादि अनेकविध यज्ञों के करने में सदैव उद्यत रहें, केवल उद्यत ही नहीं, किन्तु तेजोपुञ्ज के समान उत्तेजित होकर सदैव कटिबद्ध रहें और प्रयत्नपूर्वक अपने कर्तव्य को पूर्ण करें ॥५॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

तदीयस्तुतिं दर्शयति।

Word-Meaning: - हे स्वध्वर=शोभनयज्ञेश त्वम् ! देव्या=पूज्यया। कृपा=कृपया=युक्तः। अतः। स्तवानः=स्तूयमानः। अभिख्या=अभिख्यया=प्रसिद्धया। भासा=दीप्त्या सहितः। बृहता=तेजसा। शुशुक्वनिः=दीपनशीलस्त्वम्। उत्तिष्ठ+उ= उपासकानां हृदि उपस्थितो भव ॥५॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (स्वध्वर) हे सुयाग ! (स्तवानः) याज्ञिकैः स्तूयमानः (देव्या) दिव्यया (कृपा) समर्थया (अभिख्या) प्रसिद्ध्या (बृहता) महत्या (भासा) शस्त्रादीनां दीप्त्या (शुशुक्वनिः) जाज्वल्यमान एव (उत्तिष्ठ, उ) तमभिगमनाय उत्तिष्ठ हि ॥५॥