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आ नो॑ याहि सु॒ताव॑तो॒ऽस्माकं॑ सुष्टु॒तीरुप॑ । पिबा॒ सु शि॑प्रि॒न्नन्ध॑सः ॥

English Transliteration

ā no yāhi sutāvato smākaṁ suṣṭutīr upa | pibā su śiprinn andhasaḥ ||

Pad Path

आ । नः॒ । या॒हि॒ । सु॒तऽव॑तः । अ॒स्माक॑म् । सु॒ऽस्तु॒तीः । उप॑ । पिब॑ । सु । शि॒प्रि॒न् । अन्ध॑सः ॥ ८.१७.४

Rigveda » Mandal:8» Sukta:17» Mantra:4 | Ashtak:6» Adhyay:1» Varga:22» Mantra:4 | Mandal:8» Anuvak:3» Mantra:4


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SHIV SHANKAR SHARMA

पुनः वही विषय आ रहा है।

Word-Meaning: - हे इन्द्र परमेश्वर ! (सुतावतः) सदा शोभनकर्मकर्त्ता (नः) हमारे समीप (आयाहि) तू आ। जिस कारण तेरी आज्ञा के आश्रय से हम उपासक सर्वदा शुभकर्म ही करते हैं, अतः हमारी रक्षा के लिये और पितृवत् देखने के लिये आ। तब (अस्माकम्) हमारी (सुष्टुतीः) अच्छी-२ स्तुतियों को (उप) समीप में आकर सुन और (सुशिप्रिन्) हे शिष्टजनरक्षक दुष्टविनाशक महादेव ! (अन्धसः) हमारे विविध प्रकार के अन्नों को (पिब) कृपादृष्टि से देख ॥४॥
Connotation: - जो ईश्वर की आज्ञा में रहकर शुभकर्म करते जाते हैं, उन पर परमदेव सदा प्रसन्न रहते हैं और सर्व अभाव से उनकी रक्षा करते हैं ॥४॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (शिप्रिन्) हे प्रशस्त शिरस्त्राणवाले ! (अस्माकम्, सुष्टुतीः, उप) हमारी स्तुतियों के समीप (सुतावतः, नः) सिद्धरसवाले हमारे समीप (आयाहि) आएँ (स्वन्धसः, पिब) सुन्दर रसों को पिएँ ॥४॥
Connotation: - हे शिर पर मुकुट धारण किये हुए विजयी योद्धा ! हम लोग स्तुतियों द्वारा आपको आह्वान करते हैं, आप हमारे यज्ञसदन को प्राप्त होकर सोमरस पान करें और हमारे यज्ञ की सब ओर से रक्षा करें ॥४॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

पुनस्तदनुवर्त्तते।

Word-Meaning: - हे इन्द्र ! सुतावतः=शोभनकर्मवतः। नोऽस्मान्। आयाहि। यतो वयं सर्वदा तवाज्ञामाश्रित्य शुभानि कर्माण्येव कुर्मः, अतस्त्वमस्मान् रक्षितुं द्रष्टुं च पितृवत् आगच्छ। ततः। अस्माकम्। सुष्टुतीः=शोभनाः स्तुतीः=प्रार्थनामन्त्रान्। उपेत्य। शृणु इति शेषः। हे सुशिप्रिन्। सु=सुपूजितान् शिष्टान् जनान् पृणाति प्रसादयतीति सुशिप्री। सम्बोधने हे सुशिप्रिन्=शिष्टरक्षक दुष्टविनाशक महादेव। अस्माकमन्धसोऽन्नानि। पिब=कृपया पश्य ॥४॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (शिप्रिन्) हे प्रशस्तशिरस्त्राण ! (अस्माकम्, सुष्टुतीः, उप) अस्माकं स्तुतीनां समीपे (सुतावतः, नः) संस्कृतवतोऽस्मान् (आयाहि) आगच्छ (स्वन्धसः) सुरसान् (पिब) अनुभव ॥४॥