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स त्वं न॑ इन्द्र॒ वाजे॑भिर्दश॒स्या च॑ गातु॒या च॑ । अच्छा॑ च नः सु॒म्नं ने॑षि ॥

English Transliteration

sa tvaṁ na indra vājebhir daśasyā ca gātuyā ca | acchā ca naḥ sumnaṁ neṣi ||

Pad Path

सः । त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । वाजे॑भिः । द॒श॒स्य । च॒ । गा॒तु॒ऽय । च॒ । अच्छ॑ । च॒ । नः॒ । सु॒म्नम् । ने॒षि॒ ॥ ८.१६.१२

Rigveda » Mandal:8» Sukta:16» Mantra:12 | Ashtak:6» Adhyay:1» Varga:21» Mantra:6 | Mandal:8» Anuvak:3» Mantra:12


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SHIV SHANKAR SHARMA

इससे ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (सः+त्वम्) वह तू (नः) हम उपासकजनों को (वाजेभिः) विज्ञान (दशस्य) दे। यद्वा विज्ञानों के साथ धन दे (च) और अन्यान्य अभीष्ट वस्तुओं को भी दे। (च) और (गातुय) शोभन मार्ग दिखला (च) और (नः) हमको (सुम्नम्) सुख (अच्छ+नेषि) अच्छे प्रकार दे ॥१२॥
Connotation: - हे मनुष्यों ! परमात्मा ही से धन, जन, ज्ञान और बल की प्रार्थना करो, वही सन्मार्ग तुम्हें दिखलावेगा ॥१२॥
Footnote: यह अष्टम मण्डल का सोलहवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (सः, त्वम्) ऐसी महिमावाले आप (नः) हमारे लिये (वाजेभिः) बलों के साथ (दशस्या, च) याचित पदार्थों को दें और (गातुया, च) सन्मार्ग को दिखलाएँ (नः, अच्छ) हमारे अभिमुख (सुम्नम्, नेषि, च) सुख को प्राप्त कराएँ ॥१२॥
Connotation: - हे उपर्युक्त महिमावाले परमेश्वर ! आप हमें बल प्रदान करते हुए हमको वे पदार्थ प्रदान करें, जिनकी हम आपसे याचना करते हैं। हमें वेदविहित सन्मार्ग की ओर ले जाएँ, जिससे हम पापकर्मों से सदा पृथक् रहें और तीनों प्रकार के तापों से हमारी रक्षा करें, ताकि हम सुखसम्पन्न होकर आपकी उपासना में तत्पर रहें ॥१२॥ यह सोलहवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

इन्द्रः प्रार्थ्यते।

Word-Meaning: - हे इन्द्र ! स त्वम्। नोऽस्मभ्यम्। वाजेभिः=वाजान् ज्ञानानि। दशस्य=देहि। दशधातुर्दानार्थको वेदे। यद्वा। वाजेभिर्विज्ञानैः सह धनं प्रयच्छ वा। च। अन्यान्यपि अभीष्टानि देहि। च पुनः। गातुय=शोभनं मार्गं प्रदर्शय। च पुनः। नोऽस्मभ्यम्। सुम्नम्=सुखम्। अच्छ=अभि। नेषि=प्रापय ॥१२॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (सः, त्वम्) तादृशस्त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (वाजेभिः) बलैः सह (दशस्या, च) याचितान्दत्स्व (गातुया, च) सन्मार्गं दर्शय च (नः, अच्छ) अस्मदभिमुखम् (सुम्नम्, नेषि, च) सुखं प्रापय च ॥१२॥ इति षोडशं सूक्तमेकविंशतितमो वर्गश्च समाप्तः ॥